KP COLLEGE OF ARTS AND SCIENCE-AHORE
Driven by value of quality education..........
APPROVED BY GOVT. OF RAJASTHAN AND AFFILIATED TO JAI NARAYAN VYAS UNIVERSITY ,JODHPUR
1st Rank in District*

ENGLISH LITERATURE 1ST YEAR 1st SEM
SEMESTER - 1
PHYSICAL GEOGRAPHY
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1. पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधी परिकल्पना को समझाइए
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2. पृथ्वी की आंतरिक संरचना के प्राकृतिक एवं प्राकृतिक स्रोतों को समझाइए
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3. भू संतुलन की अवधारणा को स्पष्ट करें
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4. पृथ्वी की हलचल से उत्पन्न वलन एवं भ्रश क्या है
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5. चट्टानो के वर्गीकरण को समझाइए
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6. ज्वालामुखी
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7. भूकंप को समझाइए
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8. पर्वत पठार मैदान में जिलों के निर्माण की प्रक्रिया को समझाइए
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9. अपक्षय की प्रक्रिया एवं प्रकार को समझाएं
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10. अनाच्छादन की प्रक्रिया एवं सामान्य अपरदन चक्र क्या है।
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11. बहते जल एवं पवन निर्मित स्थलाकृतियों को समझाइए
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12. हिमनीकृत स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए
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13. वायुमंडल संगठन एवं संरचना की विवेचना कीजिए
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14. वायुमंडलीय दाब एवं वायुदाब पेटियों को समझाते हुए हवाओं के चलने को स्पष्ट कीजिए
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15. वर्षा के प्रकार एवं वर्षन को समझाइए
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16.
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17.
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18. महासागरीय जल के तापमान, लवणता को स्पष्ट करें
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19. समुंद्री निक्षेप का वर्णन कीजिए
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20. महासागरीय नित्तल की बनावट का वर्णन कीजिए
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21. ज्वार भाटा के सिद्धांतों को समझाइए
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22. जलधाराओं के बनने का कारण स्पष्ट कीजिए
Unit:- 3rd
Lesson :- 9th
———: अपक्षय (WEATHERING) :———
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अपक्षय के अन्तर्गत चट्टानों के अपने स्थान पर टूटने-फूटने की क्रिया तथा उससे उस चट्टान विशेष या स्थान विशेष के अनावरण की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है।
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इसमें चट्टान- चूर्ण के परिवहन को सम्मिलित नहीं किया जाता है ।
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अपरदन की क्रिया में टूटे हुए चट्टानों के टुकड़ों के परिवहन (नदी, हिमानी, वायु, भूमिगत जल तथा सागरीय लहर द्वारा) तथा टुकड़ों द्वारा आपस में रगड़ एवं उनके द्वारा कटाव की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है।
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अनाच्छादन (denudation) में अपक्षय तथा अपरदन दोनों क्रियाओं का समावेश किया जाता है।
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इस प्रकार अपक्षय में केवल स्थैतिक क्रिया तथा अपरदन में गतिशील क्रिया होती है।
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अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है।
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स्थैतिक क्रिया का साधारण तात्पर्य चट्टानों के अपने स्थान पर टूट-फूट से है।
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अपक्षय की क्रिया
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अपक्षय चट्टानों के टूट-फूट की वह क्रिया है, जिसके अन्तर्गत चट्टानें विघटन तथा वियोजन द्वारा ढीली पड़कर तथा विदीर्ण होकर अपने स्थान पर ही बिखर कर रह जाती हैं।
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अपक्षय की क्रिया के लिए दो आवश्यक तत्व हैं।
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1. विघटन (disintegration)
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2. वियोजन (decomposition)।
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भौतिक क्रियाओं (ताप, तुषारपात frost, जल आदि) द्वारा चट्टानों के ढीले पड़ने को ‘विघटन' तथा रासायनिक कारकों (oxidation, hydration, carbonation etc.) द्वारा चट्टानों के कमजोर तथा ढीले पड़ने को वियोजन कहते हैं।
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इस प्रकार विघटन तथा वियोजन के कारण चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं तथा बाद में टूट कर बिखर जाती हैं।
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दूसरी प्रमुख विशेषता चट्टानों के अपने स्थान पर विदीर्ण होने से सम्बन्धित है। इस प्रकार अपक्षय में परिवहन का जरा भी हाथ नही होता।
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अपक्षय को नियंत्रित करने वाले कारक
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1. चट्टान का संघटन तथा संरचना
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चूँकि अपक्षय का प्रमुख रूप चट्टान में विघटन तथा वियोजन है, अतः स्पष्ट है कि कमजोर तथा असंगठित चट्टानों में ये क्रियायें आसानी से घटित हो सकती हैं।
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उदाहरण के लिए रंध्रपूर्ण तथा घुलनशील खनिजों वाली चट्टानों (चूनापत्थर तथा डोलोमाइट) में रासायनिक अपक्षय शीघ्रता से सम्पन्न होता है।
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चट्टानों की परत की स्थिति का भी प्रभाव अपक्षय की सक्रियता पर पड़ता है।
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जिन चट्टानों में इन परतों की स्थिति लम्बवत् या उर्ध्वाकार रूप में होती है, उनमें तापीय भिन्नता, तुषारपात, जल तथा हवा का प्रभाव शीघ्र होने लगता है तथा जैसे चट्टान ढीली पड़ती है, लम्बवत् स्तर के कारण उनकी टूटन तथा गुरुत्व के कारण नीचे की ओर खिसकाव प्रारम्भ हो जाता है।
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इसके विपरीत यदि चट्टानों के स्तर क्षैतिज रूप में मिलते हैं, तो उनमें संगठन अधिक होता है तथा उनका विघटन एवं वियोजन आसानी से शीघ्र नहीं हो पाता है।
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चट्टानों की संधियों का यांत्रिक अपक्षय पर सर्वाधिक प्रभाव होता है।
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अधिक संधियों वाली चट्टान में शीतोष्ण कटिबन्धीय भागों में तुषार के कारण विस्तार तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण विघटन शीघ्रता से प्रारम्भ हो जाता है।
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इसी प्रकार उष्ण भागों में तापीय अंतर के कारण (रात्रि तथा दिन में) इन संधियुक्त चट्टानों में फैलाव तथा संकुचन अधिक होने से विघटन होता रहता है।
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2. स्थल के ढाल का स्वभाव
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ढाल यांत्रिक अपक्षय तथा मुख्य रूप से अपक्षय से उत्पन्न चट्टान-चूर्ण के सरकने को सर्वाधिक नियंत्रित करता है।
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यदि किसी भी स्थान में चट्टानी भागों का ढाल खड़ा है, तो यांत्रिक अपक्षय के कारण जरा भी विघटन होने से चट्टानों में ढीलापन आने से चट्टानों का शीघ्र टूटकर नीचे सरकना प्रारम्भ हो जाता है।
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यदि अपक्षय से उत्पन्न सामग्री का शीघ्र स्थानान्तरण हो जाता है, तो अपक्षय की गति और अधिक प्रबल हो जाती है।
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इसके विपरीत सामान्य ढाल वाले भागों में अपक्षय तीव्र रूप में नहीं हो पाता है।
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इसके कई कारण हैं।
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प्रथम यह कि सामान्य ढाल होने के कारण उत्पन्न सामग्री का स्थानान्तरण नहीं हो पाता है तथा
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दूसरा यह कि कम ढाल होने से चट्टानों का संगठन शीघ्रता से कमजोर नहीं हो पाता है।
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3. जलवायु में विभिन्नता
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यह कारक दो रूपों में प्रभाव डालता है।
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1. भूपटल के विभिन्न भागों में जलवायु की विभिन्नता के कारण अपक्षय में भिन्नता तथा उसकी सक्रियता में पर्याप्त अन्तर मिलता है।
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उदाहरण के लिए उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र भागों में अत्यधिक जल के कारण रासायनिक अपक्षय अधिक होता है।
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इन स्थानों में आर्द्रता तथा ताप की अधिकता के कारण सभी प्रकार के लवण के अपक्षालक कार्य (leaching action) तथा घोलक कार्य अधिक सक्रिय होते हैं जिस कारण धरातलीय भागों में रासायनिक अपक्षय द्वारा अपक्षालन तथा घोलन (solution) अधिक होता है।
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यहाँ पर यांत्रिक अपक्षय नगण्य होता है।
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2. उष्ण तथा शुष्क मरुस्थलीय जलवायु वाले भाग अर्थात् उष्ण कटिबन्धी मरुस्थलीय भागों में यांत्रिक अपक्षय अधिक होता है क्योंकि चट्टानी भागों में दिन के अधिक ताप तथा रात्रि के कम ताप के कारण क्रमश: फैलाव तथा संकुचन होते रहने से विघटन आसान हो जाता है।
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शुष्क शीतोष्ण कटिबन्धी जलवायु वाले प्रदेशों में भी रासायनिक अपक्षय की तुलना में यांत्रिक अपक्षय अधिक होता है क्योंकि चट्टानों के फटन तथा दरारों एवं संधियों में दिन का समाविष्ट जल रात में जमकर ठोस हो जाता है तथा दिन में पुन: पिघलकर तरल हो जाता है।
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इस क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं तथा विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
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शीत जलवायु वाले भागों में सभी प्रकार के अपक्षय प्रायः नगण्य होते हैं।
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यदि धरातल पूर्ण रूप से जमकर बर्फ से आच्छादित हो जाता है तो यांत्रिक एवं रासायनिक सभी प्रकार के अपक्षय स्थगित हो जाते हैं तथा यह क्रिया तभी सक्रिय हो पाती है जब कि बर्फ पिघल जाती है।
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इतना ही नहीं, एक ही स्थान पर जलवायु की वार्षिक विभिन्नता का भी प्रभाव अधिक होता है ।
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उदाहरण के लिए मानसूनी गर्म प्रदेशों में वर्षाकाल में अधिक नमी तथा ताप के कारण रासायनिक अपक्षय अधिक होता है, परन्तु शुष्क ग्रीष्मकाल में यांत्रिक अपक्षय सक्रिय होता है।
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(leaching action घुलाकर बहाने की क्रिया को 'लीचिंग' या अपक्षालन कहते हैं - washing or draining by percolation)
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4. वनस्पति का प्रभाव
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किसी भी स्थान विशेष में वनस्पतियों की उपस्थिति तथा अनुपस्थिति का अपक्षय के स्वभाव पर प्रभाव होता है।
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यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वनस्पतियाँ आंशिक रूप में अपक्षय के कारक भी हैं तथा आंशिक रूप में उनके लिए अवरोधक भी हैं।
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वास्तव में वनस्पतियाँ अपनी जड़ों द्वारा चट्टानों को जकड़े रहती हैं जिससे चट्टानों का संगठन अधिक बढ़ जाता है।
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इसी प्रकार वनस्पतियों के आवरण से सूर्यातप आदि का प्रभाव आवरण के नीचे वाली चट्टानों पर नहीं हो पाता है।
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इस प्रकार जिन भागों में वनस्पतियों की स्थिति होती है, वहाँ पर अपक्षय सीमित होता है। परन्तु इनके अभाव में स्थिति पूर्णतया विपरीत होती है। इस विषय में मतभेद है।
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वनस्पतियों की जड़ों में कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े होते हैं जो कि चट्टानों में शनै: शनै: विघटन लाते रहते हैं तथा वृक्षों की जड़ों के चट्टानों में प्रवेश के कारण उनकी संधियाँ विस्तृत हो जाती हैं, जिससे चट्टान ढीली पड़ जाती है तथा विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
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अपक्षय के प्रकार
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ऊपर यह स्पष्ट किया जा चुका है कि चट्टानों में विघटन तथा वियोजन मुख्य रूप से क्रमश: यांत्रिक या भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों द्वारा होता है।
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जीवों तथा वनस्पतियों द्वारा भी अपक्षय होता है तथा इनके कार्य भी यांत्रिक तथा रासायनिक दो रूपों में सम्पन्न होते हैं।
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इस आधार पर अपक्षय में भाग लेने वाले कारकों को हम निम्न रूप में विभाजित कर सकते हैं-
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1. भौतिक या यांत्रिक कारक (physical or mechanical agents)
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(i) जल, (ii) सूर्यातप, (ii) तुषार, (iv) वायु तथा (v) दाब
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2. रासायनिक कारक (chemical agents)
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(i) आक्सीजन,
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(ii) कार्बन डाईआक्साइड,
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(iii) हाइड्रोजन ।
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3. प्राणिवर्गीय कारक (biological agents)
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(i) वनस्पतियाँ,
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(ii) जीव-जन्तु तथा
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(iii) मानव
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विघटन तथा वियोजन में भाग लेने वाले कारकों (agents) के आधार पर अपक्षय का निम्न रूप में विभाजन किया जाता है :
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1. भौतिक या यांत्रिक अपक्षय
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> ताप के कारण बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन
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> ताप के कारण छोटे-छोटे कणों में विघटन
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> तुषार के कारण बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन
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> ताप तथा वायु के कारण अपदलन (exfoliation)
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> दाबमुक्ति के कारण चट्टान का टूटना
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2. रासायनिक अपक्षय
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> आक्सीकरण या आक्सीजनीकरण
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> कार्बोनेटीकरण या कार्बोनेशन
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> सिलिका का पृथक्कीकरण या डीसिलिकेशन > जलयोजन या हाइड्रेशन
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3. प्राणिवर्गीय अपक्षय
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> वानस्पतिक अपक्षय
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> जैविक अपक्षय
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> मानव द्वारा अपक्षय
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यांत्रिक अपक्षय
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सूर्यताप, तुषार तथा वायु द्वारा चट्टानों में विघटन होने की क्रिया को ‘यांत्रिक अपक्षय' कहा जाता है।
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यांत्रिक अपक्षय में यद्यपि ताप का परिवर्तन सर्वाधिक प्रभावशाली कारक है तथापि इसके अन्तर्गत दाब मुक्ति (pressure release), जल का जमना- पिघलना तथा गुरुत्व का भी सहयोग रहता है।
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यांत्रिक अपक्षय का निम्न रूपों में उल्लेख किया जा सकता है-
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(1) ताप के कारण चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन
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(block disintegration due to temperature change)
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तापीय परिवर्तन का चट्टानों पर अत्यधिक प्रभाव होता है।
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कई विद्वानों ने चट्टानों की कई ऐसी किस्मों का पता लगाया है जिन पर तापीय परिवर्तन का प्रभाव नहीं होता है, चट्टान-चूर्ण से निर्मित चट्टानों (clastic rocks) खासकर शेल (shale) तथा बालुकापत्थर पर तापीय अन्तर का प्रभाव नगण्य होता है।
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इनमें चट्टानों के कण एक दूसरे से अम्लीय अथवा क्षारीय पदार्थ की पतली सतह द्वारा अलग रहते हैं जिस कारण ताप का प्रभाव नहीं हो पाता है।
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इसके विपरीत रवेदार चट्टानों में विभिन्न कण एक दूसरे से संगठित होते हैं तथा ताप के बढ़ने से प्रत्येक कण फैलता है तथा तापीय ह्रास के साथ उनमें सिकुड़न होती है।
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तापीय परिवर्तन द्वारा चट्टानों का फैलाव तथा संकुचन द्वारा विघटन कार्य उष्ण मरुस्थलीय प्रदेशों में अधिक सम्पन्न होता है। इन स्थानों में रेतकणों (sands) की अधिकता के कारण दैनिक तापान्तर अधिक होता है, जिस कारण चट्टानों का खुला हुआ भाग या नग्न भाग दिन में अत्यधिक ताप के कारण तप्त हो जाता है, जिस कारण उसकी वाह्य परत में फैलाव होने लगता है।
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रात के समय इसके विपरीत दशा होती है, क्योंकि तापक्रम में भारी कमी आ जाती है, जिस कारण चट्टानें शीतल होने लगती हैं, जिससे उनकी बाहरी परत में संकुचन होने लगता है।
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इस प्रकार चट्टानों के तप्त होने तथा शीतल होने की क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण चट्टानों में बार-बार फैलाव तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण उनमें तनाव या खिचाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
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इस क्रमिक फैलाव एवं संकुचन के कारण चट्टानें बड़े-बड़े टुकड़ों में टूटने लगती हैं ।
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(2) ताप के कारण छोटे-छोटे कणों में विघटन
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(granular disintegration of rocks due to temperature ) —
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उन शुष्क मरुस्थलीय भागों में, जहाँ पर दैनिक तापान्तर अधिक होता है, बड़े-बड़े कणों वाली चट्टानों में टूट-टूटकर बिखरने (scattering) की क्रिया अधिक प्रचलित होती है।
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कई ऐसी परतदार तथा आग्नेय चट्टानें होती हैं जो बड़े-बड़े कणों वाली होती हैं तथा उनके खनिजों एवं रंगों में पर्याप्त विभेद होता है।
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जहाँ पर किसी चट्टान विशेष की संरचना विभिन्न रंगों द्वारा हुई होती है, वहाँ उनके विभिन्न भागों में ताप ग्रहण करने की क्षमता अलग-अलग होती है।
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चट्टान के विभिन्न भागों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है, जिस कारण चट्टानों का छोटे-छोटे टुकड़ों में विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
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इस प्रकार की क्रिया के घटित होते समय विचित्र प्रकार की आवाज होती है
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( 3 ) वर्षा के जल द्वारा चट्टानों का टूट-टूट कर बिखरना
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(scattering due to rainwater and heat) —
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गर्म प्रदेशों में जहाँ पर ताप अधिक होता है, इस क्रिया का सम्पादन अधिक होता है ।
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ग्रिग्स महोदय ने तापीय अन्तर के प्रभाव के समय अपने प्रयोगों के आधार पर यह बताया है कि तप्त चट्टानों के ऊपर जब अचानक जल की छींटें पड़ती हैं तो उनमें चटकनें आ जाती हैं।
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चट्टानों की ये चटकनें जल के साथ मिली आक्सीजन तथा कार्बन डाई आक्साइड गैसों के रासायनिक प्रभाव के कारण हुई है।
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जो भी हो, इतना तो निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि सूर्यताप द्वारा तप्त चट्टानों के ऊपर जब अचानक वर्षा की फुहारें पड़ती हैं तो उनमें शीघ्रता से चटकनें पड़ जाती हैं तथा चट्टानें छोटे-छोटे कणों में टूट कर बिखरने लगती
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उदाहरण - यदि शीशे की तप्त चिमनी पर जल की छीटें मारी जायँ तो शीशा जोरों से चटककर टूट जाता है।
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रेगिस्तानी भागों में अचानक वृष्टि के कारण यह क्रिया अधिक रूप में सम्पादित होती है।
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संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास प्रान्त में इस क्रिया के कारण चट्टानों का बिखरना सामान्य घटना है।
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(4) तुषार कणों द्वारा बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन (block disintegration due to frost ) -
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तुषार द्वारा यांत्रिक अपक्षय शीतोष्ण तथा शीत कटिबन्धीय भागों में अधिक प्रचलित होता है।
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इसके अलावा उच्च पर्वतों के ऊपरी भाग पर भी यह क्रिया अधिक सक्रिय होती है।
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वास्तव में यह क्रिया उन स्थानों में अधिक क्रियाशील होती है, जहाँ पर जल का जमना तथा पिघलना क्रम से एक दूसरे के बाद घटित होता है।
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तुषारपात की क्रिया का सम्पादन दो रूपों में होता है।
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1 चट्टान कणों के अन्दर स्थित जल का जमना तथा पिघलना
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दूसरे, चट्टानों की दराजों में स्थित जल के द्वारा।
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चट्टान के संगठन का प्रभाव इस प्रकार के यांत्रिक अपक्षय पर अधिक होता है।
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यही कारण है कि अधिक सशक्त तथा संगठित रवेदार ग्रेनाइट चट्टानों में रिक्त स्थान की कमी के कारण जल के संचयन की संभावना कम रहती है। अतः ग्रेनाइट चट्टान तुषारपात द्वारा कम प्रभावित होती है।
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वैसे ग्रेनाइट में भी कुछ कणों में जल रखने की क्षमता होती है। इसके विपरीत परतदार शैल, जो रंध्रयुक्त होती है, जल के जमने तथा पिघलने से सर्वाधिक प्रभावित होती है।
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बालुका पत्थर तथा शेल आदि चट्टानें इस क्रिया के कारण शीघ्रता से छोटे- छोटे टुकड़ों में विभक्त हो जाती हैं।
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रासायनिक अपक्षय
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वायुमण्डल के निचले स्तर में आक्सीजन, कार्बन डाई आक्साइड गैसों तथा जलवाष्प की प्रधानता होती है, परन्तु जब तक इनका संयोग नमी या जल से नहीं होता है, अर्थात् जब तक ये शुष्क होते हैं तब तक अपक्षय की दृष्टि से ये तत्व क्रियाहीन होते हैं, परन्तु जैसे ही इनका सहयोग जल से हो जाता है, ये सक्रिय घोलक हो जाते हैं।
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इनके संयोग से चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं।
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(1) आक्सीडेशन (आक्सीकरण ) -
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वायु की आक्सीजन का संयोग जब जल से होता है, तो जल से मिली आक्सीजन की क्रिया चट्टानों के खनिजों पर होती है।
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इस कारण खनिजों में आक्साइड बन जाते हैं, जिससे चट्टानों में वियोजन होने लगता है। आक्सीजन की इस क्रिया को ' आक्सीकरण' कहते हैं ।
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जिन चट्टानों में लोहे के यौगिक अधिक होते हैं उनमें आक्सीकरण का प्रभाव सर्वाधिक होता है।
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आग्नेय चट्टानों में लोहा, लौह सल्फाइट तथा पाइराइट के रूप में पाया जाता है।
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इन पर आक्सीकरण के प्रभाव से प्राय: जंग (rust) लग जाता है, जिस कारण चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं एवं वियोजन होने लगता है।
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पाइराइट पर जल तथा आक्सीजन के सम्मिश्रण के प्रभाव से गन्धक का अम्ल उत्पन्न हो जाता है, जिससे चट्टानें गलने लगती हैं।
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उष्णार्द्र भागों में आक्सीकरण अधिक सक्रिय रहता है, जिस कारण रासायनिक परिवर्तन के कारण वहाँ पर मिट्टियों का रंग लाल, पीला या भूरा हुआ करता है।
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कभी-कभी आक्सीकरण तथा जलयोजन (hydration) की क्रियाएं साथ-साथ कार्य करती हैं।
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उदाहरण के लिए लोहे के आक्साइड पर जलयोजन होने से मिट्टियों का रंग पीला अथवा नारंगी हो जाता है।
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(2) कार्बोनेशन-
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जब कार्बन डाईआक्साइड गैस का मिश्रण जल से होता है, तो कई प्रकार के कार्बोनेट बन जाते हैं जो कि जल में घुलनशील होते हैं।
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इन कार्बोनेटों के निर्माण के कारण चट्टानों के घुलनशील तत्व उनसे अलग होकर जल के साथ हो लेता है।
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इसी कारण से कार्बोनेशन को 'घोलन' (solution) भी कहा जाता है।
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जब लौह सल्फाइड या पाइराइट पर कार्बन डाई आक्साइड से युक्त जल का प्रभाव होता है, तो उसके क्रमश: लोहे के कार्बोनेट तथा सलफ्यूरिक अम्ल (sulphuric acid) बन जाते हैं।
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लोहे का कार्बोनेट अत्यधिक घुलनशील होता है तथा जल के साथ शीघ्रता से चट्टान से अलग होकर मिल जाता है।
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चूने का पत्थर साधारण जल द्वारा नहीं घुल पाता है, परन्तु जब उसका संयोग कार्बन डाईआक्साइड गैस से होता है, तो चूने का पत्थर कैलसियम बाई कार्बोनेट में बदल जाता है जो कि आसानी से जल के साथ घुलकर मिल जाता है।
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कार्बोनेशन की क्रिया के कारण ही पोटाश या पोटैशियम कार्बोनेट की रचना होती है जो कि एक प्रकार का प्रमुख जीव भोजन होता है।
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भूमिगत जल में कार्बन डाई आक्साइड का अंश अधिक रहता है, अतः चूने की चट्टानों वाले भागों में सतह के ऊपर तथा नीचे इस प्रकार के अपक्षय द्वारा कई प्रकार की स्थलाकृतियों के निर्माण हुए हैं।
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यूगोस्लाविया का कार्स्ट प्रदेश इसका प्रमुख उदाहरण हैं।
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( 3 ) हाइड्रेशन या जलयोजन-
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चट्टानों का सम्पर्क जब जल से होता है, तो जल की हाइड्रोजन से चट्टानों के खनिजों में हाइड्रेशन की क्रिया होती है, अर्थात् चट्टानें जल सोख लेती हैं तथा उनके आयतन में वृद्धि हो जाती है।
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कभी-कभी यह विस्तार प्रारम्भिक आयतन से दो गुना हो जाता है।
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इस क्रिया से कभी-कभी मौलिक चट्टान के वास्तविक आयतन में 88 प्रतिशत तक विस्तार हो जाता है।
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इस प्रकार चट्टानों के आयतन में विस्तार के कारण उनके कणों तथा खनिजों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है, जिस कारण चट्टानें फैलकर टूटने लगती हैं।
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आग्नेय चट्टान पर हाइड्रेशन की क्रिया का अधिक प्रभाव पड़ता है तथा इस प्रकार के अपक्षय से आग्नेय चट्टान टूट-टूटकर परतदार शैलों में परिवर्तित होती रहती हैं ।
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हाइड्रेशन की क्रिया द्वारा फेल्सपार नामक खनिज का परिवर्तन केओलिन मृत्तिका में हो जाता है।
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जिप्सम की संरचना मुख्य रूप से जलयोजन की क्रिया द्वारा ही हुई है।
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(4) सिलिका का पृथक्करण (desilication)—
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अनेक चट्टानों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है।
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जब जल द्वारा रासायनिक विधि से सिलिका युक्त चट्टानों से सिलिका अलग हो जाता है, तो उस क्रिया को सिलिका का पृथक्कीकरण या अलग होना कहते हैं
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आग्नेय चट्टानों में खासकर ग्रेनाइट में सिलिका की मात्रा अधिक होती है।
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इसमें से कुछ क्वार्ट्ज के रूप में होते हैं तथा अधिकांश सिलिकेट के रूप में।
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सिलिकेट का जल द्वारा चट्टान से पृथक्कीकरण आसानी से हो जाता है, जिससे चट्टान ढीली पड़ जाती है तथा उसका वियोजन शीघ्र प्रारम्भ हो जाता है।
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यही कारण है कि आग्नेय चट्टान वाले प्रदेश में बहने वाली नदियों में सिलिका की मात्रा, परतदार चट्टानों वाले भागों की अपेक्षा अधिक होती है, क्योंकि परतदार चट्टानों में सिलिका क्वार्ट्ज के रूप में होता है जो कि जल में शीघ्रता से घुलनशील नहीं होता है।
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रासायनिक अपक्षय की दृष्टि से बेसिक आग्नेय चट्टानों का वियोजन एसिड आग्नेय चट्टानों की अपेक्षा अधिक होता है
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प्राणिवर्गीय अपक्षय (Biological Weathering)
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वनस्पतियाँ तथा जीव-जन्तु दोनों चट्टानों के विघटन तथा वियोजन में सहयोग प्रदान करते हैं।
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परन्तु यह उल्लेखनीय है कि इनके सभी कार्य विनाशात्मक ही नहीं होते हैं।
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जीव-जन्तु खासकर जो बिल बनाकर पृथ्वी के अन्दर रहते हैं, उनका काम निश्चय ही पृथ्वी की सतह में खोद-खाद करना रहता है, परन्तु वनस्पतियाँ यदि एक तरफ चट्टान को अपनी जड़ों द्वारा कमजोर तथा पोली बनाती हैं तो दूसरी तरफ उनमें सघनता तथा संगठन भी लाती हैं।
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प्रारम्भ से ही मानव कार्य भी पृथ्वी तल पर भौतिक आकृतियों में तोड़-फोड़ करता है।
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(1) जीव-जन्तुओं द्वारा अपक्षय (weathering due to animals)—
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पृथ्वी की ऊपरी सतह में मिट्टी में रहने वाले कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े तथा बिलकारी प्राणी (burrowing animals बिल बनाकर रहने वाले जीव) रहते हैं जो कि शनै: शनै: परन्तु लगातार धरातलीय चट्टानों में अपने विनाशात्मक कार्य अर्थात् बिल बनाने के लिए खनन कार्य द्वारा उसे ढीली तथा पोली बनाते रहते हैं।
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बिलकारी जीवों में गोफर (एक प्रकार की गिलहरी), प्रेयरी कुत्ते, दीमक, लोमड़ी, गीदड़, चींटी, चूहा आदि प्रमुख हैं, जो कि अपने निवास के लिए चट्टानों को खोदकर उनमें बिल बनाते हैं, जिस कारण चट्टानें पोली तथा कमजोर हो जाती हैं एवं विघटन आसानी से होने लगता है।
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छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े, खासकर केचुओं का जैविक अपक्षय में सर्वाधिक साथ रहता है, जो कि प्रतिवर्ष अधिक मात्रा में निचली परतों से मिट्टी खोदकर ऊपरी सतह पर एकत्र करते रहते हैं।
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(2) वनस्पतियों द्वारा अपक्षय (weathering due to vegetation)—
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वनस्पतियों द्वारा अपक्षय दो रूपों में होता है।
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प्रथम, यांत्रिक तथा द्वितीय, रासायनिक।
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यांत्रिक अपक्षय में वृक्षों, झाड़ियों तथा छोटे-छोटे पौधों की जड़ें पृथ्वी के अन्दर प्रवेश करती हैं, जिस कारण चट्टानों की दराजें जिनमें इनकी जड़ों का प्रवेश होता है, फैलने लगती हैं तथा तनाव के कारण विघटन होने लगता है।
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वनस्पतियों द्वारा रासायनिक अपक्षय कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्रायः सभी प्रकार की वनस्पतियों की जड़ें चट्टानों के कुछ तत्वों को अपने अन्दर समाविष्ट कर लेती हैं, जिससे चट्टानें कमजोर हो जाती हैं।
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वनस्पतियों की जड़ों में प्रायः जलयुक्त वैक्ट्रीया होते हैं जो कि चट्टानों के खनिजों को घुलाकर उनसे अलग कर लेते हैं तथा चट्टान को कमजोर बना देते हैं।
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वनस्पतियों तथा जीवों के अवशेष जल में पड़कर सड़ते हैं, जिस कारण उनसे कार्बन डाईआक्साइड, आर्गेनिक एसिड आदि अलग हो जाते हैं तथा इनके सम्मिश्रण से जल एक सक्रिय घोलक कारक हो जाता है तथा चट्टानों के खनिजों को अलग कर लेता है।
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वनस्पतियों के अवशेषों के सड़ने से प्राप्त ह्यमस तत्व लिमोनाइट को घुला कर अलग कर लेता है।
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उपर्युक्त विवरण से यह तात्पर्य नहीं है कि वनस्पतियों का कार्य सदैव चट्टानों में विघटन तथा वियोजन उत्पन्न करना ही है, वरन् ये चट्टानों के संरक्षक का भी कार्य करती हैं।
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पौधे तथा वनस्पतियों की जड़ों द्वारा चट्टानें आपस में बंध जाती हैं, जिससे अपक्षय तथा अपरदन के लिए सघन तथा संगठित हो जाती हैं।
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वनस्पतियों के अभाव में अपरदन इतना अधिक सक्रिय हो जाता है कि भूमि पूर्णतया अनुपजाऊ हो जाती है।
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संयुक्त राज्य अमेरिका के केण्टुकी, वर्जीनिया, टेनेसी आदि प्रान्तों में इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
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हिमालय प्रदेश में वनों के अनावरण से अपक्षय (यांत्रिक तथा रासायनिक) की सक्रियता में वृद्धि हो रही है।
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अपक्षय की उपर्युक्त क्रियाएँ प्राय: अलग-अलग कार्य नहीं करती हैं, वरन् एक दूसरे के सहयोग के साथ सक्रिय होती हैं।
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(3) मानव जनित अपक्षय (anthropogenic weathering)-
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मनुष्य एक जैविक जन्तु है परन्तु प्रौद्योगिक मानव के रूप में अपक्षय को प्राकृतिक प्रक्रियाओं की दर को कई गुना अधिक या कम कर देने में समर्थ हो गया है।
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आधुनिक प्रौद्योगिकी से लैश आर्थिक एवं प्रौद्योगिक मानव अपरदन तथा अपक्षय का सर्वाधिक शक्तिशाली कारक बन गया है।
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मनुष्य की कतिपय आर्थिक क्रियायें, यथा-खनिजों की प्राप्ति के लिए खनन कार्य, सड़क निर्माण एवं खनिजों के लिए डायनामाइट द्वारा पहाड़ियों को उड़ाना, औद्योगिक एवं निर्माणकार्य के लिए आवश्यक पदार्थों की प्राप्ति के लिए (यथा-सीमेण्ट के लिए चूना पत्थर) खनन कार्य आदि, शैलों के विघटन में इतनी शीघ्रता से सहायता करती हैं कि इस तरह से उत्पन्न परिवर्तन सामान्य रूप में प्राकृतिक कारकों द्वारा हजारों वर्षों में ही हो सकता है।
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वनों की कटाई से पहाड़ी ढालों पर अपक्षय की दर में आशातीत वृद्धि हुई है जिस कारण पहाड़ी ढालों का सन्तुलन बिगड़ गया है तथा भूमिस्खलन की क्रियायें तेज हो गयी हैं
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(अगस्त, 1998 में उ.प्र. के पिथौरागढ़ जनपद के मालपा गांव का हृदय विदारक विनाशी भूमिस्खलन इसका प्रत्यक्ष गवाह है।इस प्राकृतिक प्रकोप के कारण कैलाश-मानसरोवर जा रहे सैकड़ों तीर्थयात्री कालकवलित हो गये)
Lesson :- 10th
——— : अपरदन चक्र - Cycle of Erosion :———
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सर्वप्रथम स्काटिश भूविज्ञानवेत्ता जेम्स हेटन ने 1785 में भूविज्ञान क्षेत्र में चक्रीय पद्धति का अवलोकन किया।
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उनका 'न तो आदि का कोई लक्षण है और न अन्त का कोई भविष्य" अन्ततः पृथ्वी के इतिहास की 'चक्रीय प्रकृति' की संकल्पना में परिणत हो गया और इसी आधार पर उन्होंने 'एकरूपतावाद के सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया।
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अमेरिकी विद्वान विलियम मोरिस डेविस ने अपरदन चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में किया।
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डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में होता है, जिसके अन्तर्गत उसे कई अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है।
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पृथ्वी की सतह पर दो तरह के बल, अन्तर्जात और बहिर्जात, कार्य करते हैं ।
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अन्तर्जात बल (पटलविरूपणी बल, ज्वालामुखी क्रिया, भूकम्प आदि) पृथ्वी के अन्दर से उत्पन्न होते हैं तथा धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं।
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अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का आविर्भाव दो रूपों में होता है-
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1. उत्थान द्वारा पर्वत, पठार, पहाड़ियों आदि का निर्माण तथा
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2. अवतलन द्वारा झीलों, गड्ढों आदि का निर्माण।
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बहिर्जात बल जिसमें नदी या बहता हुआ जल, सागरीय तरंग, हिमानी, परिहिमानी, पवन आदि प्रमुख हैं, समतल स्थापक बल होते हैं और जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, बहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं तथा अन्तत: उस भाग को समतल मैदान में परिवर्तित कर देते हैं।
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इस प्रकार उस समय के तथा विभिन्न अवस्थाओं (तरुण, प्रौढ़ तथा जीर्ण) के सम्मिलित रूप को, जिससे होकर ऊंचा उठा भाग अपक्षय तथा अपरदन द्वारा समतल प्राय मैदान में बदल गया है, अपरदन चक्र कहते हैं।
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इस अपरदन चक्र को डेविस महोदय ने भौगोलिक चक्र (geographical cycle) नाम दिया है।
Lesson : 11th
नदी निर्मित स्थलाकृतियाँ
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जल विभाजक -
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वे उच्चावच होते है जहाँ से जलराशि ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती है।
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अतः यहाँ किसी जल प्रवाह का विभाजन होता है।
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ढाल - जल विभाजक जितना ऊँचा होगा, ढाल उतना ही तीव्र रहता है।
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ढाल के अनुसार नदी का वेग तथा नदी वेग के आधार पर नदी की अपरदन क्षमता निर्धारित होती है।
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गिलबर्ट की छड़ी शक्ति का नियम - "यदि नदी का ढाल 2 गुना कर दिया जाये तो वेग 6 गुना हो जायेगा
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नदी सरिता क्रम -
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इसका निर्धारण स्ट्रॉलर द्वारा किया गया है।
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अवनालिका → द्रोणी → सरिता → नदी
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दो अवनालिकाएं मिलकर एक द्रोणी बनती है, दो द्रोणी मिलकर एक सरिता तथा दो सरिता मिलकर एक शुद्र नदी एवं दो शुद्र नदी मिलकर एक नदी का निर्माण करती हैं और नदियां मिलकर नदी तंत्र बनाती है।
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यदि किसी नदी घाटी के मध्य में खड़े होकर निर्धारण किया जाए तो
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उद्गम की ओर सहायक नदियों की अधिकतम संख्या एवं लम्बवत अपरदन मिलता है जबकि नदी मुहाने की ओर सहायक नदियों की कम संख्या तथा नदी निक्षेपण मिलता है।
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युवावस्था के नदी स्थलरूप -
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अधिक सोपेक्षित उच्चावच (ढाल) के कारण नदी द्वारा लम्बवत अपरदन किया जाता है जिसे घाटी गर्तन कहते है।
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नदी तीव्र गति से आधार तल प्राप्त करना चाहती है। जिससे निम्न स्थलरूप बनते है
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1. V आकार की घाटी
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नदी द्वारा दोनों ओर किनारों से तीव्र घाटी गर्तन (लम्बवत अपरदन) किया जाता है जिससे संकरे आधार वाली V(वी) आकार वाली घाटी का निर्माण होता है।
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2. U आकार की घाटी
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नदी द्वारा V आकार की घाटी के दोनों ओर पार्श्विक अपरदन से उसे यू आकार में बदल दिया जाता है।
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3. गार्ज
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यू आकार की घाटी में लगातार लम्बवत अपरदन (घाटी गर्तन) द्वारा उसे ओर अधिक गहरा कर दिया जाता है, इसे आई आकार की घाटी अथवा गार्ज कहते है।
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बुंजी स्थान पर - सिंधु नदी 5400 मी गहरा गॉर्ज बनाती है।
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गॉर्ज सदैव - लम्बी एवं संकीर्ण घाटी होती है।
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4. केनियन
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नदी द्वारा गॉर्ज के दोनों किनारो पर लम्बवत् अपरदन के साथ पार्श्विक अपरदन करके घाटी को विस्तृत चोडा व लम्बी घाटी के रूप में विकसित कर दिया जाता है।