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CHAPTER -1 
             गृह विज्ञान का परिचय 

 

गृह विज्ञान की परिभाषा का :- 

          गृह विज्ञान कला और विज्ञान ऐसा सहम होता है। जिसमे घर और पारिवारीक जीवन को बेहतर बनाने के लिए वैज्ञानिक ज्ञान को  दैनिक जीवन में व्यवस्थित लेते है।


 

 गृह विज्ञान के क्षेत्र:-

 

1 खाद्य एवं पोषण (Food & Nutrition ) :

                वायु एवं जल के पश्चात् भोजन ही हमारी मूलभूत आवश्यकता है जो कि मनुष्य को जीवन एवं स्वास्थ्य प्रदान करता है । स्वादिष्ट एवं पौष्टिक भोजन उसे तृप्ति तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। सुपोषण प्राप्त करने के लिये मनुष्य को प्रसन्नचित रहकर संतुलित भोजन गृहण करना चाहिये । व्यक्ति अपनी आयु, लिंग, व्यवसाय, जलवायु एवं शारीरिक अवस्था के अनुरूप भोज्य पदार्थों का सही-सही चुनाव तभी कर सकता है जब उसे भिन्न-भिन्न भोज्य पदार्थों के विविध कार्यों, उनमें निहित पोषक तत्वों, उनकी दैनिक आवश्यकता तथा पोषक तत्वों के अधिकतम उपयोग आदि का ज्ञान हो।

 

2) मानव विकास एवं पारिवारिक अध्ययन :-

                 घर ही बालक का प्रथम पालना एवं पाठशाला है जहाँ पारिवारिक सदस्यों के सान्निध्य में प्रेम व सहयोग के वातावरण में उसका पूर्णरूपेण विकास होता | गृह विज्ञान के इस विभाग में नवजात शिशु से लेकर वृद्धावस्था तक शारीरिक, सामाजिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के विविध क्रमिक सोपान, पारिवारिक जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाएँ, इन अवस्थाओं की भिन्न-भिन्न समस्याओं एवं उनके समाधान तथा विवाह, परिवार, मानवीय एवं सामाजिक रिश्तों से सम्बन्धित अनेक विषय सम्मिलित हैं। इसके अध्ययन से गृहिणी अपने बच्चों के स्वास्थ्य व विकास के विविध आयामों पर पूर्णरूपेण नजर एवं नियन्त्रण रख सकती है तथा उन्हें एक स्वस्थ सामाजिक एवं उत्तरदायी नागरिक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।

 

3) पारिवारिक संसाधन प्रबन्धन :-

             पारिवारिक संसाधन प्रबन्धन का अध्ययन छात्र -छात्राओं को सीमित संसाधनों का समुचित उपयोग एवं प्रबन्धन करने में सक्षम बनाता है, जिससे वे अपने परिवार को सुनियोजित व सुव्यवस्थित रूप से चला सकें । इस विषय के अध्ययन से व्यक्ति अपने सीमित समय, श्रम, धन एवं आसपास मौजूद अन्य संसाधनों जैसे: हवा, पानी एवं सामुदायिक सुविधाओं (सड़क, पार्क, अस्पताल, विद्यालय, पोस्ट ऑफिस, बैंक आदि) का अधिकतम उपयोग अपने परिवार व घर की समुचित देखभाल, सजावट तथा आस- पास के पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिये कर सकता है ।

 

4.) वस्त्र एवं परिधान अभिकल्पन:-

                   वस्त्र व परिधान मनुष्य के व्यक्तित्व का आईना हैं । ये मनुष्य की रचनात्मक योग्यता, अंतर्निहित सौंदर्य, प्रसन्नता एवं आकर्षण को अभिव्यक्त करते हैं । वस्त्र विज्ञान के अन्तर्गत छात्र-छात्राएँ वस्त्रों में निहित रेशों, उनसे बने धागों व वस्त्रों की बुनाई, बनावट व विशेषताओं का अध्ययन करते हैं, जिससे वे अपने व परिवार के विभिन्न सदस्यों के लिये उम्र, लिंग, व्यवसाय, जलवायु, अवसर, प्रयोजन, पसन्द-नापसन्द व उपलब्ध धन आदि के आधार पर उपयुक्त वस्त्रों व परिधानों का चुनाव व खरीददारी कर सकें।

 

5) गृह विज्ञान प्रसार एवं संचार प्रबंध:-

                    छात्र - छात्राओं को गृह विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षित करना ही हमारा एक मात्र उद्देश्य नहीं है बल्कि इस शिक्षा को गाँवों व शहरों में घर-घर तक पहुँचाना तथा सामुदायिक जीवन की अधिकतम उन्नति हेतु इसका उपयोग करना भी है। गृह विज्ञान के विविध विषयों से प्राप्त शिक्षा को समुदाय एवं समाज के लोगों तक प्रसारित करना तथा उनके जीवन स्तर को उन्नत करना व अच्छा जीवन यापन करने के लिये गृह विज्ञान शिक्षा को उपयोग में लेने हेतु प्रेरित एवं निश्चित करना ही प्रसार शिक्षा है। गृह विज्ञान प्रसार शिक्षा द्वारा छात्र - छात्राओं को प्रसार शिक्षा एवं संचार के विभिन्न साधनों जैसे व्याख्यान, प्रदर्शन, नाटक, टीवी, रेडियो, प्रदर्शनी आदि एवं विविध गुरों जैसे निर्णायक क्षमता, प्रबन्ध क्षमता एवं प्रभावी नेता के रूप में आदि का उपयोग करते हुए अपने समुदाय के लोगों को जागृत करना होता है। उनमें इतनी समझ पैदा की जाती है कि वे अपनी आवश्यकताओं व परेशानियों को पहचान सकें तथा उपलब्ध संसाधनों द्वारा उनका समाधान कर सकें ।

 

गृह विज्ञान का महत्व:-

      घर परिवार व संसाधनों का उचित उपयोग करने लिये, आर्थिक सम्बलता आदि के लिये गृह विज्ञान का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। जीवन में इसका महत्व इस प्रकार है।

 

1. व्यक्तिगत जीवन में महत्व- इसमें पढ़ाये जाने वाले सभी विषय व्यक्ति विशेष के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है जिससे उसे जीवन निर्वहन में आसानी होगी।

 

2. पारिवारिक जीवन के लिये महत्व- यह विषय व्यक्तिगत जीवन के लिये ही उपयोगी नहीं हैं बल्कि इसमें पढ़ाये जाने वाले विषय मातृकला, गृहप्रबन्ध, वस्त्रविज्ञान, शरीर विज्ञान, सम्पूर्ण परिवार के लिये महत्वपूर्ण है।

 

3. आर्थिक महत्व- इस विषय के द्वारा कोई भी व्यक्ति वैतनिक या स्वरोजगार स्थापित करके अपना जीवनयापन करके परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधार सकता है।

 

4. बदलती स्थितियोंं के अनुकूलूल पारिवारिक जीवन को बनाना- यह एक ऐसा विषय है जो हम को साहस के साथ बदलते वक्त की चुनौतियों का सामना करने के लिये भी प्रशिक्षित करता है।


 

       

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CHAPTER -2 
 प्रसार शिक्षा 


 

प्रसार शब्द अंग्रेजी शब्द ‘Extension का हिन्दी रूपान्तर है। Extension शब्द लैटिन भाषा के ‘Tension’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ खींचना अथवा फैलाना है तथा Ex का अर्थ ‘Out’ बाहर है अतः प्रसार शिक्षा इस प्रकार की शिक्षा है जो ग्रामों में तथा अन्य जगहों पर स्कूल व कॉलिज की सीमाओं के बाहर फैलाई जाती है, विस्तृत की जाती है जो औपचारिक शिक्षा से हटकर होती है। अतः यह ग्रामीण लोगों की शिक्षा है जिससे उनका सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास हो। बिना किसी संगठित स्कूल एवं कक्षाओं की सहायता के उपयोगी सूचनाएँ एवं विचारों को ग्रामीण लोगों तक पहुँचाना ही इसका प्रमुख उद्देश्य है।

 

प्रसार शिक्षा के उद्देश्य:-

1.)खाद्य एवं कृषि उत्पादन में बढोत्तरी हो ।

2)परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य और पोषण स्तर में सुधार हो। 

3) बेहतर स्वच्छता और सफाई का वातावरण बने ।

4) नये ज्ञान व कौशल देने वाली शिक्षा का प्रचार करना जिससे लोगों में निर्णय लेने में अधिक कुशलता प्राप्त हो 5)नव विचार और तकनीकी को अपनाना।

6) समाज का विकास एवं प्रत्येक व्यक्ति का आर्थिक स्तर मजबूत करना ।

7)सामुदायिक विकास ।

8)कई सामाजिक मुद्दों पर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाना ।

9) ग्रामीणों को बदलाव के लिए तैयार करके कृषि के तरीकों का नवीनीकरण व ग्रामीण स्तर पर लघु उद्योग शुरू करना ।

10)ग्रामीण जिम्मेदारी और संवेदनशील नेतृत्व क्षमता का विकास। 

11)ऐसे भोजन के तरीकों को अपनाना जो उत्तम पोषण स्तर प्रदान करें।

12)सामान्य रूप से कुछ पोषक तत्वों जैसे विटामिन A तथा आयरन की अल्पता से होने वाली

13)बीमारियों से बचाव हेतु ऊचित खुराक देना।

14)बच्चों को पोलियो, टायफाइड, हेपिटाइटिस आदि बीमारियों से बचाव हेतु टीकाकरण करना ।

15) समाज का आर्थिक स्तर मजबूत करना ।

16)गाँवों में लघु उद्योग स्थापित करके लोगों को रोजगार दिलाना ।

17) स्वच्छता का ध्यान रखना ।

18)जीवन प्रत्याशा को सुधारना, शिशु मृत्यु दर एवं बीमारी की दर कम करना। 

19) जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना ताकि लोग कम बीमार पड़ें और उनका स्वास्थ्य उत्तम रहे।

                  

 

प्रसार शिक्षा के सिद्धांत:-

 

1)नमनीयता का सिद्धान्त:-

                 प्रसार शिक्षण पद्धति में नमनीयता का विशेष महत्व होता है। विभिन्न परिवेशों, स्थानों व्यक्तियों के निमित इसके स्वरूप में परिवर्तन लाना होता है। इसके अन्तर्गत किसी प्रतिबद्ध पाठ्यक्रम का अनुपालन नहीं होता। जिस परिवेश, जिस स्थान अथवा जिस व्यक्ति के निमित्त कार्यक्रम चलाना हो उसी को लक्षित करके कार्यक्रम-नियोजन किया जाता है। अतः प्रसार शिक्षण पद्धति में पर्याप्त नमनीयता का होना आवश्यक है। साथ ही समय के साथ इनमें बदलाव लाने की सम्भावनाएँ भी होनी चाहिए।

 

2) आवश्यकताओं और रूचियों का सिद्धांत:-

                  ग्रामीणों की समस्याएँ अत्यन्त जटिल हैं क्योंकि उनकी समस्याओं के समाधान अनेक प्रकार से बाधित हैं। प्रसारकर्ता का प्रमुख कर्त्तव्य लोगों की रुचियों एवं आवश्यकताओं को समझकर तदनुरूप सहज एवं ग्राह्म हल ढूँढ़ना है। हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के प्रति सतर्क रहता.. है। और उनकी पूर्ति के लिए जिज्ञासु होता है। कोई व्यक्ति जब उसकी समस्याओं को सुलझाने तथा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उद्यत होता है तो परिस्थिति अत्यन्त प्रभावकारी एवं विश्सनीय होती है। लोगों को जब उनकी समस्याओं के हल मिलते हैं तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, तभी कोई भी कार्यक्रम सफल समझा जाता है।

 

3). स्वेच्छा से शिक्षा का सिद्धान्त :-

                 सीखने की क्रिया स्वैच्छिक होनी चाहिए। किसी प्रकार के दबाव में आकर किया गया काम स्थायी स्वभाव ग्रहण नहीं कर सकता। यही कारण है कि प्रसार शिक्षा के अन्तर्गत मानव-व्यवहार में परिवर्तन लाने पर जोर दिया जाता है। व्यक्ति की मनोवृत्ति या दृष्टिकोण में जब परिवर्तन आते हैं। तो अन्तःप्रेरणा या स्वतः प्रेरणा से अभिभूत होकर वह आगे बढ़ता है। स्वेच्छा से प्रेरित व्यक्ति समस्याओं के हल ढूँढने के प्रति भी उत्साहित नहीं होता, जबकि दबाव में काम करने वाला व्यक्ति शीघ्र ही हतोत्साहित हो जाता है एवं उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।

 

4) स्वयं की सहायता का सिद्धान्त :-

                         स्वतःप्रेरणा या अंतःप्रेरणा प्रसार शिक्षा का सार तत्त्व है। प्रसार कार्यकर्त्ता का मूल कर्त्तव्य व्यक्तियों को उत्प्रेरित कर मैं आत्मोत्थान की ओर ले जाना है। ऐसा तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपनी सहायता आप करे। प्रसार कार्यक्रम में कृषकों को खेती के उन्नत तरीकों से परिचित कराकर उन्हें स्वयं उन पद्धतियों के परिपालन करने को प्रेरित किया जाता है। स्वयं कार्य-निष्पादन करके व्यक्ति अधिक सीखता है तथा स्थायी रूप से सीखता है। प्रसार कार्यकर्त्ता की भूमिका मात्र एक सहायक की होनी चाहिए, जो लोगों को उत्प्रेरित करे तथा समय-समय पर सामने आने वाली समस्याओं को हल करने में अपने सुझाव प्रस्तुत करे।

 

5)स्वावलम्बन का सिद्धान्त :-

                     जब व्यक्ति स्वयं की सहायता करने को तत्पर होता है तथा स्वयं कार्य निष्पादन करता है तो उसमें आत्म-निर्भरता एवं स्वावलम्बन की भावना जागती है, जो उसे निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती है। प्रसार शिक्षण का यही सिद्धान्त है कि ग्रामीण आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनें। यह स्वावलम्बन उन्हें जीवन के अनेक क्षेत्रों में सहायक सिद्ध होता है। यही नहीं, नई पद्धतियों एवं जानकारियों की खोज के प्रति  वह जिज्ञासु रहता है। अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिदिन उठने वाली समस्याओं के हल भी व्यक्ति स्वयं ढूँढ़ने को प्रयत्नशील होता है। साथ आत्मोन्नति के हर सम्भव प्रयासों को करने को तत्पर रहता है।

 

6) सहयोग का सिद्धान्त :-

                प्रसार कार्यक्रम ग्रामीणों के निमित बनाए जाते हैं। इनके, कार्यान्वयन के लिए ग्रामीणों का  सहयोग लेना एक महत्त्वपूर्ण शर्त है। प्रसार कार्य के अन्तर्गत सभी कार्यक्रम ग्रामीणों के सहयोग से चलाए जाते हैं, चाहे वह उन्नत खेती हो, यातायात सुविधा हो, बच्चों की पाठशाला हो, स्वास्थ्य सेवा हो या पोषाहार कार्यक्रम हो। प्रसार कार्यकर्त्ता तो अकेला चना होता है, जो भाड़ नहीं फोड़ सकता। ग्रामीणों का विश्वास एवं सहयोग प्राप्त करके ही वह प्रसार कार्यक्रमों को कार्यान्वित करके साकार रूप दे सकता है।


 

प्रसार कार्यकर्ता के गुण:-

         अभी तक हमने सिर्फ प्रसार कार्यकर्ता की भूमिकाओं या कार्यों की चर्चा की। इन सभी कार्यों को सही प्रकार से पूरा करने के लिए एक प्रसार कार्यकर्ता में कुछ गुणों का होना भी आवश्यक है। इनमें से कुछ गुण उसमें पहले से ही निहित होते हैं और कुछ वह प्रशिक्षण व अभ्यास के द्वारा स्वयं में समाहित कर सकता है। ये सभी गुण किसी भी प्रसार कार्यक्रम को सफल बनाने उसकी में मदद करते हैं। ये गुण निम्नलिखित हैं:

 

1. वह ग्रामीण क्षेत्र से सम्बंधित होना चाहिए। उसे समुदाय की संस्कृति तथा समस्याओं की समझ होनी चाहिए।

2. उसे गाँव की स्थिति, वातावरण और जीवन में अच्छी तरह समायोजित होना चाहिए। 

3. उसे विषय की अच्छी समझ होनी चाहिए ।

4.वह ईमानदार, साहसी तथा बुद्धिमान होना चाहिए।

5. अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह आत्मविश्वासी, सही निर्णय लेने की क्षमता वाला व दृढ़ निश्चयी होना चाहिए।

6. वह समाज के सुख दुःख साझा करने में सक्षम होना चाहिए।

7. वह लोगों को प्रेरित करने में सक्षम होना चाहिए।

8. वह सिखाने हेतु उचित तरीकों के चुनाव में सक्षम होना चाहिए।

9.वह विकास कार्यक्रमों के लिए विभिन्न सरकारी एजेंसियों से संसाधनों के अनुदान, अनुमति व खरीद में सक्षम होना चाहिए। 

10.उसे समुदाय की विकास योजना बनाने में सक्षम होना चाहिए।

 

प्रसार शिक्षा के कार्य क्षेत्र:-

                         प्रसार शिक्षा उन सभी गतिविधियों, स्थितियों, कार्यक्रमों और नीतियों को सम्मिलित करता है जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। जब भी और जहाँ भी लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने की और उनके व्यवहार में वांछनीय बदलाव लाने की जरूरत महसूस की जाती है वहाँ प्रसार शिक्षा का प्रयोग होता है। आज प्रसार शिक्षा लोगों के विकास व वृद्धि हेतु हमारे देश और दुनिया भर में एक स्थायी क्षेत्र के रूप में विकिसित हो गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रसार शिक्षा का कार्यक्षेत्र केवल हमारे देश में ही नहीं अपितु सभी विकासशील देशों में फैला हुआ है।

 

1. बेहतर जीवन व्यापन के लिए गृह विज्ञान

        परम्परागत रूप से माँ द्वारा बेटियों को घर और परिवार प्रबंधन सम्बंधित सभी कार्यों में प्रशिक्षित किया जाता रहा है। गृह विज्ञान नयी अवधारणाओं, कौशलों, नई खोजों व अनुसंधान को खुद में समाहित किये हुए एक नये विषय के रूप में हमारे समक्ष आया है और इसे लोगों तक केवल प्रसार शिक्षा के माध्यम से पहुंचाया जा सकता है। जिसके बारे में हम इकाई 3 में विस्तार से पढ़ेंगे।

 

2 कृषि उत्पादन में दक्षता, विपणन, वितरण, भंडारण और कृषि उत्पाद में उपयोग हेतु कृषि

       कृषि विश्वविद्यालय बड़े पैमाने पर प्रसार शिक्षा का उपयोग नई वैज्ञानिक खोजों, उपकरण व तकनीकों को किसानों तक पहुँचाने के लिए करते हैं। 

 

3. उत्तम कार्यक्षमता और निम्न अपव्यय हेतु प्रौद्योगिकी हस्तांतरण:-

        दुनिया तेजी से तकनीकी के क्षेत्र में उन्नति कर रही है। प्रसार शिक्षा का उपयोग तकनीकी को अपनाने, प्रसारित करने, तकनीकी अंतराल को कम करने, विकास के प्रभाव व परिणाम को जानने तथा विकास से सम्बंधित विभिन्न कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने हेतु किया जाता है। 

 

4. सामुदायिक विकास और ग्रामीण कल्याण केलिए प्रशिक्षण व अनुसंधान :-

               प्रसार शिक्षा का उपयोग विभिन्न समूहों के प्रशिक्षण, क्षेत्रीय परीक्षण या अनुसंधान हेतु आंकड़े एकत्रित करने हेतु किया जाता है। अनुसंधान विभिन्न पहलुओं जैसे लोगों के व्यवहार और मनोविज्ञान, विभिन्न विचारों की स्वीकार्यता, प्रौद्योगिकी व नई खोजों का लोगों के जीवन में प्रभाव व सभी प्रसार कार्यक्रमों के मूल्यांकन हेतु किया जाता है।

5 .उन्नत ग्रामीण नीति तैयार करने और ग्रामीण आबादी के सर्वांगीण विकास हेतु नीति बनाना :-

                लोगों व देश के विकास हेतु राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर नीतियाँ बनायी जाती हैं। राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नीतियां बनायी जाती हैं। प्रसार शिक्षा से प्राप्त ज्ञान व सूचना का प्रयोग जमीनी हकीकत जानने के लिए किये जाता है। राष्ट्रीय राज्य व स्थानीय स्तर पर नीतियाँ बनाते समय प्रसार शिक्षा विकास लक्ष्यों व वांछनीय परिवर्तनों को लक्षित करता है।

 

6.सभी प्रसार सेवाओं हेतु कार्यक्रम नियोजन व निष्पादन:-

         सभी विकास कार्यक्रमों के नियोजन व निष्पादन हेतु प्रसार शिक्षा का उपयोग किया जाता है।विकास कार्यक्रमों के हर एक चरण में प्रसार शिक्षा की आवश्यकता होती है।

 

7. उन्नत गृह व कृषि प्रबंधन हेतु प्रसार शिक्षा:-

             खेतों व घर में सुधार करने के लिए लोगों को प्रबंधन उपकरण व तकनीकी के उपयोग के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। खेतों व घर में उपयोग होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे फसल उत्पादन, उत्पाद का भंडारण व गृह प्रबंधन हेतु मानव संसाधन योजना के लिए युवाओं व महिलाओं के प्रशिक्षण को सम्मिलित करता है।

 

8 युवाओं में नेतृत्व क्षमता का विकास:-

            नेतृत्व क्षमता विकसित करने सम्बंधित कार्यक्रम सूचना प्रौद्योगिकी तथा प्रोत्साहन का प्रवाह सभी तक पहुँचाने हेतु समुदाय में पदानुक्रम तथा समूहों के नेता बनाने का कार्य करते हैं।


 

प्रसार शिक्षा की प्रक्रिया :-

            प्रसार शिक्षा के प्रमुख चरण निम्नलिखित है-

 

1. ध्यानाकर्षण ( Attention ) – किसी परिणाम या प्रतिफल को देखकर ही लोगों का ध्यान उसकी ओर जाता है। दूसरे शब्दों में, इसे ध्यानाकर्षण कहते हैं। गेहूँ के पुष्ट दाने, टमाटर-बैंगन के बड़े आकार, भुट्टों के लहलहाते खेत, फलों से लदे पेड़-पौधे इत्यादि देखकर कोई भी कृषक उनके प्रति आकर्षित होगा। इसी प्रकार स्वेटर के अन्दर नमूने, नये-नये व्यंजन, हस्तकला से सुसज्जित घर महिलाओं को आकर्षित करते हैं। ग्रामीणों में अभिरुचि एवं आकांक्षा जगाने की पहली सीढ़ी ध्यानाकर्षण है। व्यक्ति समझता है कि उसकी समस्या का कोई हल है, तभी वह उस हल के प्रति आकर्षित होता है। प्रसार कार्यक्रम के अन्तर्गत कृषि-प्रदर्शनी, कृषि मेला, हस्तशिल्प प्रदर्शनी, पोस्टर, छायाचित्र प्रदर्शनी, रेडियो तथा दूरदर्शन के कृषि एवं महिलोपयोगी प्रसारण, सिनेमा आदि के माध्यम से लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। 

 

2. अभिरुचि ( Interest ) — कोई वस्तु या उपलब्धि जब किसी व्यक्ति का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हो जाती है तो आगे की क्रिया सहज हो जाती है। अभिरुचि एक प्रतिक्रिया है जो ध्यानाकर्षण के कारण होती है। किसी वस्तु या उपलब्धि पर जब ध्यान केन्द्रित होता है तो उस परिणाम के प्रति अभिरुचि जागना स्वाभाविक है। जब ग्रामीणों का ध्यान परिणाम पर आकर्षित हो गया हो तो प्रसार शिक्षक को उसके विषय में थोड़ी जानकारी देना प्रारम्भ करना चाहिए। प्रसार शिक्षक को अपनी बात आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करनी चाहिए, जिससे लोगों को यह आभास न हो कि कोई बात उन पर थोपी जा रही है। 

 

3. आकांक्षा (Desire ) — प्रसार शिक्षक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ग्रामीणों में नई जानकारियों को प्राप्त करने की जो अभिरुचि उसने जगाई है, उसे बनाए रखे क्योंकि जिस वस्तु के प्रति व्यक्ति की अभिरुचि जागती है, उसे प्राप्त करने की आकांक्षा भी उसके मन में जाग्रत होने लगती है। आकांक्षा एक आन्तरिक शक्ति है जो सीखना- क्रिया को गत्यात्मकता प्रदान करती है। आकांक्षा से प्रभावित व्यक्ति अधिक सक्रियता एवं उत्साह के साथ किसी भी काम को सीखना चाहता है। इससे वह कम समय और कम मेहनत द्वारा किसी भी पद्धति को सीख लेता है। प्रसार शिक्षक की चेष्टा यही होनी चाहिए कि वह अभिरुचिको आकांक्षा में परिवर्तित होने का वातावरण बनाए रखे। परिमाण-प्रदर्शन की पुनरावृत्ति करे, लोगों को उनके लाभ की बातें बताता रहे। 

 

4 विश्वास (Conviction ) — आवश्यकता व्यक्ति को सीखने की प्रेरणा देती है। विषय के प्रति आस्था व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेतिर एवं प्रोत्साहित करती है कि वह क्रियाशील होकर आगे बढ़े। ग्रामीणों के मन में नई पद्धतियों के प्रति विश्वास जगाने में प्रसार कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। विभिन्न प्रसार माध्यमों की सहायता लेकर वह ग्रामीणों के समक्ष नई पद्धतियों एवं सूचनाओं को एक निर्विवाद सत्य की तरह प्रस्तुत कर सकता है। ग्रामीणों के मन में जब इनके प्रति आस्था जाग जाती है तो आगे की क्रियाएँ स्वतः स्वाभाविक एवं सहज हो जाती है।

 

5 जानकारी (Knowldege ) — किसी भी विषय के प्रति आस्था, व्यक्ति को इस बात के लिए बाध्य करती है कि वह तत्सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करे। इसी प्रकार ग्रामीणों के मन में, जब किसी पद्धति के प्रति विश्वास घर कर लेता है तो वे विषय-सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने को उद्दीप्त हो जाते हैं। प्रसार कार्यकर्ता की भूमिका इस समय, ग्रामीणों को उन पद्धतियों से सम्बन्धित जानकारी देना है जिससे वे कार्य सम्पादन में जुटा सकें क्योंकि अगला चरण कार्य सम्पादन है। ग्रामीणों को जानना चाहिए कि उन्हें क्या करना है, कहाँ से प्रारम्भ करना है।

 

6 क्रिया (Action)– प्रसार शिक्षण के अन्तर्गत यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि इसका सम्बन्ध शिक्षण के व्यावहारिक पक्ष है। किसी भी कार्य से सम्बद्ध शिक्षण तभी सफल माना जाता है जब लोग उस कार्य को व्यवहार में लाते हैं। व्यावहारिक शिक्षण की लक्ष्य पूर्ति तभी होती है जब बताई गई बातों को क्रियात्मकता मिले। प्रसार शिक्षण के माध्यम से प्राप्त पद्धतियों एवं सूचनाओं का ग्रामीण समुदाय जब अनुसरण करता है, उसके करता है तो प्रसार शिक्षण सफल कहा जा सकता है। जानकारियों के पहुँचाने के बावजूद जब ग्रामीण पुरानी पद्धतियों के अनुसार काम करते रहते हैं तो प्रसार-शिक्षा विफल माना जाता है। 

 

7 संतुष्टि (Satisfaction) – सीखने की क्रिया आवश्यकता से प्रारम्भ होती है तथा कई प्रेरक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर वांछित लक्ष्य तक पहुँचती है। कोई विद्यार्थी जब पड़ता है तो परीक्षा में अच्छा फल प्राप्त करना उसका वांछित लक्ष्य होता है। इसी प्रकार जब कृषक हल जोतता है तो अच्छी फसल की प्राप्ति उसका वांछित लक्ष्य होता है। इसका प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यक्ति कोई भी कार्य किसी प्रलोभन या वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त करता है। अपने वांछित या प्रतिफल से वह पूरी तरह परिचित रहता है और उसे क्या चाहिए या उसकी क्या आकांक्षा है; वह भली-भाँति जानता है। यही कारण है कि वांछित लक्ष्य की प्राप्ति होने पर ही वह संतुष्ट हो पाता है। वांछित लक्ष्य के अन्तर्गत व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति, उसकी समस्या के निदान, कार्य क्षमता में वृद्धि या इसी तरह की कोई और बात हो सकती है। 

 

8 मूल्यांकन (Evaluation ) – मूल्यांकन प्रसार शिक्षण का महत्वपूर्ण चरण है। मूल्यांकन द्वारा ही यह ज्ञात हो पाता है कि वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति हुई है अथवा किस सीमा तक हुई है। मूल्यांकन एक विश्लेषणात्मक अध्ययन है जो कार्य सम्पादन की त्रुटियों या लाभों की जानकारी देता है। कार्य सम्पादन के क्रम में भी समय-समय पर कार्य प्रगति से सम्बन्धित सूचनाएँ मूल्यांकन द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इससे सीखने वाले तथा सिखाने वाले दोनों को लाभ होता है। समय पर दोष निवारण होना अपने आप में महत्वपूर्ण है। प्रसार शिक्षण के अंतर्गत मूल्यांकन द्वारा ही इस त की जानकारी हो पाती है कि लोगों के व्यवहार में, उनकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में, प्रसार शिक्षा के फलस्वरूप कौन-कौन से परिवर्तन आए।


 

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                           Unit -2        

 
CHAPTER -3
मानव विकास

 

मानव विकास मनोविज्ञान की एक शाखा है जो उन तत्वों का अध्ययन करती है और उन्हें अनुकूलित करने का प्रयास करती है जो लोगों को स्वस्थ और पूर्ण जीवन जीने में मदद करते हैं। इस क्षेत्र का उद्देश्य व्यक्तियों और उनके रिश्तों में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को समझना है, जैसे-जैसे वे सीखते और बढ़ते रहते है।

  •  'विकास' शब्द बड़ा होने तक ही सीमित नहीं है। इसके बजाय इसमें एक शामिल है क्रमबद्ध तरीके से होने वाले मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तनों की प्रगतिशील श्रृंखला, व्यक्ति को परिपक्वता की ओर ले जाने वाला सुसंगत मार्ग। 'प्रगतिशील' शब्द यह दर्शाता है कि परिवर्तन पीछे की ओर जाने के बजाय दिशात्मक रूप से आगे की ओर ले जाने वाले हैं। मात्रात्मक परिवर्तन मात्रा या राशि में परिवर्तन जैसे वृद्धि हैं आकार, ऊंचाई, वजन, शरीर की परिधि आदि में शब्दावली गुणात्मक परिवर्तन प्रकार, संरचना, संगठन और कार्य में परिवर्तन हैं। 

  •  विकास शब्द किसी व्यक्ति की विशुद्ध रूप से शारीरिक भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं, यानी ऊंचाई, वजन, आकार और लंबाई आदि।विकास मात्रात्मक है . यह गर्भधारण से शुरू होता है लेकिन एक निश्चित उम्र पर समाप्त होता है।

  • विकास का तात्पर्य अंग के कार्य के साथ-साथ आकार, रूप या संरचना में समग्र परिवर्तन से है। विकास मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है। यह गर्भ से प्रारंभ होकर समाधि पर समाप्त होने वाली एक सतत प्रक्रिया है।


 

जीवन काल की अवधारणा:   

  •  परिवर्तन का पैटर्न जो गर्भाधान से शुरू होता है और जीवन चक्र के माध्यम से जारी रहता है।"

  •  जीवनकाल विकास को उम्र के अनुरूप प्रगति से जुड़े एक व्यवस्थित, अंतर-व्यक्तिगत परिवर्तन के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। विकास कार्यप्रणाली के स्तर को दर्शाते हुए आगे बढ़ता है।

  • जीवन-काल विकासात्मक मनोविज्ञान मनोविज्ञान का वह क्षेत्र है जिसमें पूरे जीवन काल में, यानी गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक मानव व्यवहार में स्थिरता और परिवर्तन दोनों की जांच शामिल है । विकास विभिन्न क्षेत्रों में होता है, जैसे जैविक (हमारे भौतिक अस्तित्व में परिवर्तन), सामाजिक (हमारे सामाजिक संबंधों में परिवर्तन), भावनात्मक (हमारी भावनात्मक समझ और अनुभवों में परिवर्तन), और संज्ञानात्मक (हमारी विचार प्रक्रियाओं में परिवर्तन)।

  • जीवनकाल विकास में जीवन के पूरे पाठ्यक्रम के दौरान होने वाले जैविक, संज्ञानात्मक और मनोसामाजिक परिवर्तनों और स्थिरताओं की खोज शामिल है। इसे एक सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो मानव विकास की प्रकृति के बारे में कई मौलिक, सैद्धांतिक और पद्धति संबंधी सिद्धांतों का प्रस्ताव करता है। शोधकर्ताओं द्वारा यह जांचने का प्रयास किया गया है कि क्या विकास की प्रकृति पर शोध एक विशिष्ट मेटाथियोरेटिकल विश्वदृष्टि का सुझाव देता है। कई मान्यताएँ, एक साथ मिलकर, "परिप्रेक्ष्यों का परिवार" बनाती हैं जो इस विशेष दृष्टिकोण में योगदान करती हैं।

  • विकास व्यक्ति के पूरे जीवन भर होता है, या आजीवन होता है।

  • विकास बहुआयामी है, जिसका अर्थ है कि इसमें शारीरिक, भावनात्मक और मनोसामाजिक विकास जैसे कारकों की गतिशील बातचीत शामिल है

  • विकास बहुदिशात्मक होता  है और इसका परिणाम जीवन भर लाभ और हानि होता है

  • विकास प्लास्टिक है , जिसका अर्थ है कि विशेषताएँ निंदनीय या परिवर्तनशील हैं।

  • विकास प्रासंगिक और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों से प्रभावित होता है।

  • विकास बहुविषयक है.



 

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   CHAPTER -4

        मानव विकास की अवस्थाएं 


 

मानव विकास की अवस्थाएं:- 

             एक सतत प्रक्रिया है. जहां तक उसकी शारीरिक बुद्धि की बात है तो वह एक सीमा (परिपक्वता, Maturity) को प्राप्त करने के बाद रुक जाती है परंतु उसकी मनोशारीरिक क्रियाओं में विकास निरंतर होता रहता है. और इसके साथ ही उसका मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक और चारित्रिक विकास निरंतर होता रहता है. यह सब विकास उसके विभिन्न आयु स्तरों पर भिन्न-भिन्न रूप में होता है. इन आयु स्तरों को ही मानव विकास की अवस्थाएं कहते हैं. भारतीय मनीषियों ने मानव विकास की अवस्थाओं को 8कालों में विभाजित किया है -

 

1). शैशवास्था (Infancy):-

            यह अवधि जन्म से लेकर 18 महीने तक की होती है । इसे विश्वास बनाम अविश्वास का युग कहा जाता है । माँ के गर्भ से जो नया वातावरण आता है, शिशु को केवल पोषण की आवश्यकता होती है । अगर बच्चे की देखभाल करने वाला, माँ लगातार इन जरूरतों की पूर्ति करती है, तो शिशु दूसरों पर भरोसा करना सीखता है, आत्मविश्वास विकसित करता है । अनिवार्य रूप से बच्चा चिंता और अस्वीकृति के क्षणों का अनुभव करेगा । यदि शिशु को आवश्यक सहायता और देखभाल प्राप्त करने में विफल रहता है, तो यह अविश्वास विकसित करता है जो जीवन के बाद के चरणों में व्यक्तित्व को प्रभावित करता है ।

 

2) शैशवावस्था और बाल्यावस्था:- 

                यह अवस्था 18 महीने से 3 वर्ष तक होती है । जीवन के दूसरे वर्ष तक, मांसपेशियों और तंत्रिका तंत्र में स्पष्ट रूप से विकास हो जाता है, और बच्चा नए कौशल प्राप्त करने के लिए उत्सुक होता है, अब बैठने और देखने के लिए सामग्री नहीं है । बच्चा घूमता है और अपने वातावरण की जांच करता है, लेकिन निर्णय अधिक धीरे-धीरे विकसित होता है । बच्चे को मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इस अवधि में सामने आई स्वायत्तता बनाम संदेह के संकट में, महत्वपूर्ण मुद्दा स्वतंत्रता की बच्चे की भावना है । एक अत्यंत अनुमेय वातावरण में, बच्चे को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जिसे वह संभाल नहीं सकता है, और बच्चा अपनी क्षमताओं के बारे में संदेह विकसित करता है । इसी तरह अगर नियंत्रण गंभीर है, तो बच्चा इतना कम सक्षम होने के लिए बेकार और शर्मनाक महसूस करता है । बच्चे की जरूरतों और पर्यावरणीय कारकों का सम्मान करते हुए उपयुक्त मध्य स्थिति, देखभालकर्ता की सावधानी और निरंतर ध्यान की आवश्यकता होती है ।

 

3)बाल्यावस्था :-

                यह अवस्था 3-5 साल तक की होती  है । इस अवधि के दौरान सामने आया संकट पहल बनाम अपराध है । एक बार स्वतंत्रता की भावना स्थापित हो जाने के बाद, बच्चा विभिन्न संभावनाओं को आज़माना चाहता है । वह इस समय है कि नई चीजों को आज़माने के लिए बच्चे की इच्छा सहज या बाधित होती है । इस चुनौतियों का सामना करने ले लिए एक सक्रिय और प्रयोजन पूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है । इस उम्र में बच्चों को उनके शारीर, उनके व्यवहार, उनके खिलौने और पालतू पशुओं के बारे में ध्यान देने को कहा जाता है । जिम्मेदारी की भावना के विकास के साथ बालक के पहल करने की क्षमता में वृद्धि होती है 

 

4)मध्य बाल्यावस्था :- 

                  यह अवधि 5-12 वर्ष तक होती है । इस अवधि के दौरान बच्चे को अधिक ध्यान अवधि विकसित होती है, कम नींद की जरूरत होती है, और ताकत में तेजी से लाभ होता है; इसलिए, बच्चा कौशल प्राप्त करने में बहुत अधिक प्रयास खर्च कर सकता है, और योग्यता की आवश्यकता होती है । इस अवधि के दौरान आने वाला परिश्रम बनाम हीनता है । बच्चे का उद्देश्य अक्षमता की बजाय सक्षमता की भावना विकसित करना है । इस प्रयास में सफलता आगे के औद्योगिक व्यवहार की ओर ले जाती है, असफलता से हीनता की भावनाओं का विकास होता है । इसलिए, कार्यवाहकों को बच्चे को उचित कार्य करने के लिए मार्गदर्शन करना चाहिए ।

 

5) किशोरावस्था:-

                 यह बचपन से वयस्कता तक संक्रमण की अवधि है जो 12-20 वर्षों तक होती है । इस अवधि के दौरान, व्यक्ति कई परिवर्तनों में शामिल होता है । इन परिवर्तनों का व्यक्ति के यौन, सामाजिक, भावनात्मक और व्यावसायिक जीवन के लिए भारी प्रभाव है; यही कारण है कि स्टेनली हॉल ने इस अवधि को “तूफान और तनाव की अवधि” के रूप में वर्णित किया है । ये परिवर्तन व्यक्ति को एक पहचान खोजने के लिए बनाते हैं, जिसका अर्थ है स्वयं की समझ विकसित करना, लक्ष्यों को प्राप्त करना और कार्य / व्यवसाय की भूमिका । व्यक्ति देखभाल करने वालों और सहकर्मी समूहों के प्रोत्साहन और समर्थन के लिए तरसता है । यदि वह सफल होता है तो वह स्वयं या पहचान की समझ विकसित करेगा, अन्यथा वह भूमिका भ्रम / पहचान भ्रम से पीड़ित होगा ।

 

6)युवावस्था  :-

             यह अवस्था 20-30 वर्षों तक होती  है।  एक वयस्क के रूप में, व्यक्ति समाज में एक मजबूत जगह लेता है, आमतौर पर नौकरी पकड़ता है, समुदाय में योगदान देता है और एक परिवार को बनाए रखता है और संतानों की देखभाल करता है । ये नई ज़िम्मेदारियाँ तनाव और कुंठाएँ पैदा कर सकती हैं, और इनमें एक समाधान परिवार के साथ एक अंतरंग संबंध है।  यह स्थिति आत्मीयता बनाम अलगाव नामक संकट की ओर ले जाती है । यदि इन समस्याओं को परिवार के प्यार, स्नेह और समर्थन से प्रभावी ढंग से हल किया जाता है, तो व्यक्ति एक सामान्य जीवन जीता है, अन्यथा वह अलगाव और अलगाव की भावना विकसित करेगा जो बदले में उसके व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है ।

 

7) मध्य युवावस्था :– 

              यह अवधि 30-50 वर्ष तक होती है । इसे अन्यथा मध्यम आयु कहा जाता है । जीवन के इस चरण के दौरान, संकट का सामना जननात्मकता बनाम स्थिरता है । इसके लिए अगली पीढ़ी को शामिल करने के लिए अपने से परे एक व्यक्ति के हितों का विस्तार करना होगा । संकट का सकारात्मक समाधान न केवल बच्चों को जन्म देने में है, बल्कि संस्कृति के उत्पादों और विचारों में, और प्रजातियों में अधिक सामान्य विश्वास में, युवाओं के लिए काम करने, सिखाने और देखभाल करने में निहित है । यह प्रतिक्रिया स्वार्थ के बजाय मानवता की भलाई की इच्छा को दर्शाती है । यदि यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति निराश हो जाएगा और ठहराव की भावना का अनुभव करता है ।

 

8)वृद्धावस्था :–

           यह अवस्था मृत्यु तक 65 वर्ष के बाद का विस्तार है । इस उम्र तक लोगों के लक्ष्य और क्षमताएं अधिक सीमित हो गई हैं। इस चरण में संकट अखंडता बनाम निराशा है जिसमें व्यक्ति यादों में अर्थ पाता है या इसके बजाय असंतोष के साथ जीवन को देखता है । अखंडता शब्द का अर्थ भावनात्मक एकीकरण है; यह किसी के जीवन को अपनी जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार नहीं कर रहा है । यह इस बात पर आधारित नहीं है कि क्या हुआ है, लेकिन इस बारे में कैसा महसूस होता है । यदि किसी व्यक्ति ने कुछ लक्ष्यों में, या यहां तक कि दुख में अर्थ पाया है, तो संकट संतोषजनक ढंग से हल हो गया है । यदि नहीं, तो व्यक्ति असंतोष का अनुभव करता है, और मृत्यु की संभावना निराशा लाती है । शारीरिक स्वास्थ्य की स्थिति में गिरावट, आय में कमी, पति-पत्नी की मृत्यु आदि, अभी भी इन भावनाओं को और अधिक खराब कर देंगे ।

 

महत्व:-

      मानव वृद्धि और विकास का अध्ययन व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास और समझ के लिए प्रचुर मूल्य प्रदान करता है। हम मानव वृद्धि और विकास का अध्ययन क्यों करते हैं इसके कई कारण मौजूद हैं।

 सामान्य लाभों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • अपने स्वयं के जीवन के अनुभवों की बेहतर समझ हासिल करना । इससे लोगों को व्यक्तिगत रूप से यह समझने में मदद मिल सकती है कि बचपन की घटनाओं ने उनके वयस्कता को कैसे आकार दिया।

  •  सामाजिक संदर्भ विकास को कैसे प्रभावित करता है इसका ज्ञान प्राप्त करना । यह ज्ञान शिक्षकों जैसे पेशेवरों के लिए अमूल्य हो सकता है क्योंकि वे अपने छात्रों के बारे में गहरी समझ हासिल करते हैं।

  • दूसरों को जीवन के उतार-चढ़ाव को समझने और प्रासंगिक बनाने में मदद करना। इससे चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों को अपने ग्राहकों को आत्म-खोज में बेहतर सहायता करने में मदद मिलती है।

  • यह समझने के लिए कि सामाजिक परिवर्तन कैसे वृद्धि और विकास का समर्थन कर सकता है। यह समझ स्कूलों में निर्णय लेने वालों को शैक्षिक संस्कृति को बेहतरी के लिए बदलने में मदद करती है।

  • कई अलग-अलग उद्योगों में अधिक प्रभावी अनुसंधान, शिक्षक या नेता बनने के लिए । मानव विकास को गहराई से और संदर्भ में समझने से कई व्यावसायिक लाभ होते हैं जिससे अधिक अंतर्दृष्टि प्राप्त हो सकती है।

  • व्यक्तियों के पूरे जीवन काल में उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का समर्थन करना । डॉक्टरों, नर्सों और चिकित्सक जैसे पेशेवरों को अपने ग्राहकों को बेहतर समर्थन देने के लिए मानव वृद्धि और विकास को समझना चाहिए।



 

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CHAPTER -5 
विकास और महत्व 
   

 

विकास के प्रकार:-

1)शारीरिक विकास:- 

               शारीरिक विकास से तात्पर्य शैशवावस्था से वयस्कता तक शरीर की मांसपेशियों और कंकाल संरचना की वृद्धि से है। इस प्रकार के विकास को आमतौर पर ठीक मोटर कौशल और सकल मोटर कौशल के बीच विभाजित किया जाता है।

  •  एक शिशु वस्तुतः अपने शरीर पर बिना किसी नियंत्रण के पैदा होता है। पहला विकास गर्दन और मुंह में होता है, जो नवजात शिशु को दूध पीने के लिए अपना सिर घुमाने की अनुमति देता है।

  • जैसे-जैसे बच्चा सेफलोकॉडल और प्रोक्सिमोडिस्टल विकास नामक प्रक्रियाओं में बढ़ता है, विकास शरीर के माध्यम से नीचे और बाहर की ओर बढ़ता है ।

  • सकल मोटर कौशल पहले विकसित होंगे और तब देखे जा सकते हैं जब बच्चा बैठ सकता है, खुद को खड़े होने की स्थिति में खींच सकता है, समर्थन के साथ चलने में सक्षम हो सकता है, और अंततः (अजीब तरह से) दौड़ने और दोनों पैरों से कूदने में सक्षम हो सकता है।

  • वहां से, शारीरिक समन्वय अधिक उन्नत हो जाएगा और इसमें गेंद को उछालने और पकड़ने में सक्षम होना शामिल होगा।

  • ठीक मोटर कौशल बच्चे की मोटी वस्तुओं को पकड़ने, कप को अपने मुंह में ले जाने और वस्तुओं को एक हाथ से दूसरे हाथ में स्थानांतरित करने की क्षमता में प्रकट होता है।

  • बाद में, शारीरिक विकास लिखने में सक्षम होने, पेंसिल को मुट्ठी में पकड़ने और अंततः अक्षर लिखने और कच्चे चित्र बनाने के लिए तर्जनी और अंगूठे के बीच पेंसिल पकड़ने से आगे बढ़ेगा।

 

2.)बौद्धिक/संज्ञानात्मक विकास

            बौद्धिक, या संज्ञानात्मक, विकास से तात्पर्य है कि मनुष्य पर्यावरण से जानकारी कैसे प्राप्त करते हैं, व्यवस्थित करते हैं और संसाधित करते हैं।

  •  बच्चे बहुत अविकसित मस्तिष्क के साथ पैदा होते हैं, जीवन के पहले महीनों में केवल संवेदी क्षेत्र ही काम करते हैं। इसलिए, नवजात शिशु केवल 5 इंद्रिय तौर-तरीकों के माध्यम से जानकारी संसाधित करने में सक्षम होता है : स्पर्श, दृष्टि, गंध, स्वाद और श्रवण।

  • जैसे-जैसे मस्तिष्क परिपक्व होता है, वैसे-वैसे बौद्धिक विकास भी होता है । शिशु भाषा कौशल विकसित करना शुरू कर देते हैं और शब्दों के अर्थ समझने लगते हैं। संवाद करने का उनका प्रयास बड़बड़ाने और निश्चित रूप से रोने के रूप में आता है।

  • अगले कई वर्षों में बौद्धिक कौशल का लगातार विकास होगा जिसमें तेजी से बढ़ती शब्दावली और प्रारंभिक समस्या-समाधान कौशल शामिल हैं ।

  • बौद्धिक विकास के ये पहलू लगातार अधिक उन्नत और जटिल होते जा रहे हैं। अंततः, युवा वयस्क वैज्ञानिक तर्क, आलोचनात्मक सोच और नवीन सृजन में संलग्न होने में सक्षम होता है।

 

3.) सामाजिक विकास:-

       सामाजिक विकास अन्य मनुष्यों के साथ बातचीत करने के बारे में है। यह संदर्भित करता है कि एक बच्चा सहपाठियों के साथ कैसे खेलता है, दोस्ती बनाता है और बाद में वयस्कता में, एक व्यक्ति रोमांटिक रिश्तों में कैसे कार्य करता है।

  • सामाजिक संपर्क के प्रारंभिक रूप माँ और शिशु के बीच होते हैं। इन शुरुआती बातचीत के दौरान एक स्वस्थ भावनात्मक बंधन बनता है या नहीं, इसका इस बात पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है कि बच्चा अपने आसपास की दुनिया को कैसे देखता है।

  • जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, अन्य वयस्कों, रोल मॉडल और साथियों का बच्चे के सामाजिक विकास पर प्रभाव पड़ने लगता है। कुछ बच्चे दूसरों के साथ बातचीत करने की एक दोस्ताना और खुले विचारों वाली शैली विकसित करते हैं, और इसलिए सकारात्मक और स्वस्थ रिश्ते बनाने में सक्षम होते हैं।

 

4) भावनात्मक विकास:-

           भावनात्मक विकास का संबंध बच्चे की भावनात्मक स्थिति और उनकी आत्म-नियमन करने की क्षमता से होता है। भावनात्मक विकास का सीधा संबंध सामाजिक विकास से है और इसलिए यह देखभाल करने वालों, साथियों और रोल मॉडल से प्रभावित होता है।

  • जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, भावनाएं अधिक जटिल हो जाती हैं जिनमें शर्मिंदगी, गर्व और ईर्ष्या शामिल होती है।

  • भावनात्मक विकास का एक प्रमुख घटक भावनात्मक विनियमन से संबंधित है। समय के साथ, बच्चे अपनी भावनाओं और उन्हें व्यक्त करने के तरीके को नियंत्रित करना सीख जाते हैं।

  • उदाहरण के लिए, जब एक बहुत छोटा बच्चा कोई खिलौना चाहता है जिसके साथ दूसरा बच्चा खेल रहा हो, तो वह उसे पकड़ सकता है और दौड़ सकता है।

  • हालाँकि, जब वे अपने भावनात्मक आवेगों को नियंत्रित करना सीख जाते हैं, तो वे खिलौना लेने की इच्छा को दबा सकते हैं और इसके बजाय पूछकर या बातचीत करके जो वे चाहते हैं उसे पाने का रास्ता खोज सकते हैं।

  • अंततः, बच्चे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति को दबाना सीख जाते हैं और उन भावनाओं को भी चित्रित कर सकते हैं जो प्रामाणिक नहीं हैं, लेकिन स्थिति के लिए उपयुक्त हैं।

 

5) नैतिक विकास:-

    नैतिक विकास का तात्पर्य बचपन से वयस्कता तक नैतिक तर्क की प्रगति से है। इसमें नैतिक निष्कर्ष या कार्रवाई के तरीके तक पहुंचने के लिए स्थितिजन्य कारकों और सही और गलत के सिद्धांतों पर विचार करने की क्षमता शामिल है।

  • प्रारंभिक चरणों में, नैतिक तर्क नियमों के कड़ाई से पालन पर आधारित होता है। यदि प्रश्नगत व्यवहार नियमों के विरुद्ध है, तो कार्य अनैतिक है।

  • बाद के चरणों में, नैतिक रूप से क्या सही है या गलत यह परिप्रेक्ष्य का विषय है। बच्चे जांच के तहत स्थिति में शामिल लोगों की विभिन्न राय पर विचार करने में सक्षम हैं।

  • सबसे उन्नत चरणों में, नैतिक तर्क व्यक्तिगत अधिकारों और सार्वभौमिक सिद्धांतों पर केंद्रित होता है। यह तथ्य कि कोई विशेष कार्य कानून के विरुद्ध है, किसी व्यक्ति के कार्रवाई करने या सार्वभौमिक कारण का बचाव करने के अधिकार से कम महत्वपूर्ण नहीं है।


 

महत्व:-

       विकास के पाँच मुख्य प्रकारों में समानताएँ हैं। प्रत्येक अपनी अभिव्यक्ति और कार्य में प्राथमिक और बुनियादी के रूप में शुरू होता है। उदाहरण के लिए, एक शिशु का अपने अंगों पर बहुत कम नियंत्रण होता है और वह केवल कुछ ही भावनाओं का अनुभव कर सकता है।

  • जैसे-जैसे मस्तिष्क और शरीर परिपक्वता प्रक्रियाओं से गुजरते हैं, क्षमताएं अधिक उन्नत होती जाती हैं। समय के साथ, बच्चा खड़ा होना, चलना, कूदना और दौड़ना सीख जाता है। वे वस्तुओं को पकड़ सकते हैं और अंततः अक्षर और सरल शब्द लिख सकते हैं, हालाँकि इसमें 5 या 6 साल लग सकते हैं।

  • भावनाएँ अधिक जटिल हो जाती हैं। बच्चे अपने भावनात्मक आवेगों को नियंत्रित करना सीखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर अपनी सच्ची भावनाओं को छिपा भी सकते हैं।

  • सभी मनुष्य प्रत्येक प्रकार के विकास के चरणों से एक ही क्रम में गुजरते हैं, लेकिन उस प्रगति की दर में बहुत भिन्नता होती है।


 

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CHAPTER -6 
विकास के सिद्धांत 


 

विकास शब्द किसी व्यक्ति की विशुद्ध रूप से शारीरिक भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं, यानी ऊंचाई, वजन, आकार और लंबाई आदि।विकास मात्रात्मक है . यह गर्भधारण से शुरू होता है लेकिन एक निश्चित उम्र पर समाप्त होता है

       विकास का तात्पर्य अंग के कार्य के साथ-साथ आकार, रूप या संरचना में समग्र परिवर्तन से है। विकास मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है। यह गर्भ से प्रारंभ होकर समाधि पर समाप्त होने वाली एक सतत प्रक्रिया है।

 

1. निरंतरता का सिद्धांत:-

           विकास निरंतरता के सिद्धांत का पालन करता है जिसका अर्थ है कि विकास एक सतत प्रक्रिया है । यह प्रसवपूर्व से शुरू होता है और मृत्यु पर समाप्त होता है।

 

2. एकीकरण का सिद्धांत:-

           इस प्रकार विकास में संपूर्ण से भागों की ओर और भागों से संपूर्ण की ओर गति शामिल होती है और इस तरह यह संपूर्ण और उसके भागों के साथ-साथ विशिष्ट और सामान्य प्रतिक्रियाओं का एकीकरण होता है। यह एक बच्चे को उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं या आयामों के संबंध में संतोषजनक ढंग से विकसित करने में सक्षम बनाता है। 

उदाहरण: बच्चा पहले हाथ चलाना सीखना शुरू करता है, फिर उंगली चलाना और फिर हाथ और उंगली दोनों को एक साथ चलाना सीखना शुरू करता है, इसे एकीकरण कहा जाता है।

 

3. विकास दर में एकरूपता के अभाव का सिद्धांत-

         विकास एक सतत प्रक्रिया के माध्यम से होता है, लेकिन व्यक्तित्व के विभिन्न विकासों या जीवन के विकासात्मक अवधियों और चरणों में विकास की दर के संदर्भ में स्थिरता और एकरूपता प्रदर्शित नहीं करता है।

उदाहरण: किसी व्यक्ति की ऊंचाई और वजन के मामले में वृद्धि और विकास की दर उच्च हो सकती है लेकिन मानसिक और सामाजिक विकास की गति समान नहीं हो सकती है।

 

4. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत:-

           प्रत्येक जीव अपने आप में एक विशिष्ट रचना है। विकास के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक यह है कि इसमें व्यक्तिगत भिन्नताएँ शामिल हैं। विकास की कोई निश्चित दर नहीं है. यह सार्वभौमिक है कि सभी बच्चे चलना सीखेंगे, लेकिन प्रत्येक बच्चे द्वारा अपना पहला कदम उठाने का समय अलग-अलग हो सकता है।

 

5. एकरूपता पैटर्न का सिद्धांत-

              यद्यपि विकास एक समान दर से आगे नहीं बढ़ता है और विकास के विभिन्न चरणों की प्रक्रिया और परिणाम के संबंध में चिह्नित व्यक्तिगत अंतर दिखाता है, यह एक या दूसरे आयाम में एक निश्चित पैटर्न का पालन करता है जो एक प्रजाति के व्यक्ति के संबंध में एक समान और सार्वभौमिक है।                               

 

6. सामान्य से विशिष्ट की ओर बढ़ने का सिद्धांत-

          व्यक्तित्व के किसी भी पहलू का विकास करते समय बच्चा पहले एक सामान्य प्रतिक्रिया उठाता है या प्रदर्शित करता है और बाद में विशिष्ट और लक्ष्य-निर्देशित प्रतिक्रियाएँ दिखाना सीखता है।

 

7. आनुवंशिकता और पर्यावरण के बीच परस्पर क्रिया का सिद्धांत-

       बच्चे का विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे पूरी तरह से आनुवंशिकता या पर्यावरण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है । विकास में दोनों को अहम भूमिका निभानी होगी. दोनों के पक्ष में तर्क हैं. हालाँकि, अधिकांश मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि इन दोनों कारकों की परस्पर क्रिया से विकास होता है।

जहां आनुवंशिकता विकास (ज्यादातर शारीरिक) पर कुछ सीमाएं तय करती है या निर्धारित करती है, पर्यावरणीय प्रभाव विकास प्रक्रिया (गुणात्मक) को पूरा करते हैं। पर्यावरणीय प्रभाव परिवार, साथियों, समाज आदि के साथ बातचीत के माध्यम से बहुआयामी विकास के लिए स्थान प्रदान करते हैं। वृद्धि और विकास आनुवंशिकता और पर्यावरण का संयुक्त उत्पाद है ।

 

8. अंतर्संबंध का सिद्धांत:-

      किसी की वृद्धि और विकास के विभिन्न पहलू या आयाम आपस में जुड़े हुए हैं। विकास की क्रमिक एवं सतत प्रक्रिया के दौरान किसी न किसी आयाम में जो हासिल किया जाता है या नहीं हासिल किया जाता है, वह निश्चित रूप से अन्य आयामों के विकास को प्रभावित करता है।

    एक स्वस्थ शरीर एक स्वस्थ दिमाग और भावनात्मक रूप से स्थिर, शारीरिक रूप से मजबूत और सामाजिक रूप से जागरूक व्यक्तित्व का विकास करता है। दूसरी ओर, अपर्याप्त शारीरिक या मानसिक विकास के परिणामस्वरूप सामाजिक या भावनात्मक रूप से कुसमायोजित व्यक्तित्व हो सकता है।

 

9. सेफैलोकॉडल का सिद्धांत-

             विकास अनुदैर्ध्य अक्ष की दिशा में होता है। सिर से पैर या पैर तक विकास. इसीलिए, खड़े होने में सक्षम होने से पहले, बच्चा पहले अपने सिर और बाहों पर और फिर अपने पैरों पर नियंत्रण हासिल कर लेता है।

 

10. प्रोक्सिमोडिस्टल का सिद्धांत-

              मोटर कौशल का विकास शरीर के केंद्रीय भागों से शुरू होकर बाहर की ओर होना चाहिए। इसीलिए, शुरुआत में, बच्चे को हाथ की बड़ी बुनियादी मांसपेशियों पर नियंत्रण करते हुए देखा जाता है और फिर हाथ और उसके बाद उंगलियों की छोटी मांसपेशियों पर नियंत्रण किया जाता है।

 

11. पूर्वानुमेयता का सिद्धांत-

              विकास पूर्वानुमानित है, जिसका अर्थ है कि विकास के पैटर्न और अनुक्रम की एकरूपता की मदद से। हम काफी हद तक किसी बच्चे की वृद्धि और विकास के किसी विशेष चरण में एक या अधिक पहलुओं या आयामों में उसके सामान्य स्वभाव और व्यवहार का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। हम उस विशेष उम्र को जान सकते हैं जिस पर बच्चे चलना, बोलना आदि सीखेंगे।

    

12. सरपिल बनाम रेखील उन्नति का सिद्धांत:-

         बच्चे का विकास पथ पर किसी भी अवस्था में सीधा या रैखिक रूप से आगे नहीं बढ़ता है और कभी भी स्थिर या स्थिर गति से नहीं होता है। बच्चे के एक निश्चित स्तर तक विकसित होने के बाद, तब तक हासिल की गई विकासात्मक प्रगति को सुदृढ़ करने के लिए आराम की अवधि होने की संभावना है। इसलिए आगे बढ़ने पर विकास पीछे मुड़ता है और फिर सर्पिल पैटर्न में आगे बढ़ता है।

 

13.परिपक्वता एवं सीखने के साहचर्य का सिद्धांत

             जैविक वृद्धि और विकास को परिपक्वता के रूप में जाना जाता है। जैविक परिवर्तनों में मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में परिवर्तन शामिल होते हैं, जो बच्चे को नई क्षमताएं प्रदान करते हैं। विकास सरल से जटिल की ओर बढ़ता है । शुरुआत में, बच्चा ठोस वस्तुओं के माध्यम से सीखता है और धीरे-धीरे अमूर्त सोच की ओर बढ़ता है। यह परिवर्तन परिपक्वता के कारण होता है।


 

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CHAPTER - 7
 कुपोषण 
  

 

भोजन:-

 वह सभी ठोस और तरल पदार्थ जिसे हम खाते, पिते है जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती है, आसानी से पच जाता है, कि शरीर की वृद्धि होती है तथा शरीर को पोषण प्राप्त होता है उसे हम भोजन कहते हैं।

 

पोषण:- 

      शरीर की विभिन्न रासायनियक किया को सम्पन्न करने के लिए भोग्न मे उपस्थित पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता होती है। भोजन के अन्तर्गत से पाचन और अवशोषण के बाद सजीव इन पोषक तत्वो का उपयोग किया जाता है जिससे शारिरीक वृद्धि होती है, तन्तुओं की मरम्त होती है तथा शरीर की क्रियाओं पर नियंत्रण होता है , पोषण कहा जाता है।

पोषण की मुख्य 2 स्थितियां होती है - 

1.सुपोषण और

2. कुपोषण 

 

सुपोषण:- 

         पोषण की वह स्थिति जिसमे व्यक्ति शारीरिक,मानसिक समाजिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहता है। उसकी क्रियाशीलत उसकी उम्र के अनुसार होती है

लक्षण -

1. त्वचा सुंदर, धब्बे रहित, लोचदार,आकर्षक और झुर्रियां हीन होती है

2. बाल चिकने, घने,चमकदार,

3. नींद गहरी, स्वप्नरहित हो।

4. पाचन क्रिया सही होना।

5. मासपेशिया पुर्ण विकसित और सुगठित हो।

6. हड्डियां मजबूत होना।

7. व्यक्ति में कठिन परिश्रम की क्षमता और सहनशीलता होना।

 

कुपोषण:- 

        यह पोषण की वह स्थिति है जिसके कारण व्यक्ति के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगती है।एक या अधिक पोषक तत्व की कमी या अधिकता या असंतुलन के कारण शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।

 

कुपोषण की स्थितियां:- 

1. अति पोषण:- 

       जब व्यक्ति के आहार में कुछ पौष्टिक तत्वों की अधिकता हो जाती है तो यह अधिक समय तक चलती है,इसे अतिपोषण कहते हैं। इसके कई रोग हो जाते हैं जैसे मोटापा, हृदय रोग।

 

2. अल्प पोषण:-

          जब व्यक्ति में किसी न किसी पोषक तत्वों की कमी निरन्तर बनी रहती है तो वैसा पोषण अल्प पोषण कहलता है। इसके कारण कई बीमारियां हो जाती है जैसे एनीमिया (खून की कमी से), बेरी -बेरी (विटामिन बी की कमी से) ।

यह भी 2 तरह का होता है - 

(i) प्राथमिक अल्प पोषण - जब भोजन में पोषक तत्वों की निरंतर कमी के कारण होता है।

(ii) द्वितीयक अल्प पोषण - जब व्यक्ति द्वारा समूचित मात्रा में सभी पौष्टिक तत्वों का आहार लिया जाता है परन्तु शरीर में  उसका पाचन, अवशोषण, उपापचय, संग्रहण सही तरीके से नही हो पाता है तो ये तत्व शरीर के बाहर उत्सर्जित कर दिए जाते हैं।

 

कुपोषण के कारण -

     1 गरीबी

     2  जनसंख्या वृद्धि

     3  बेरोजगारी 

     4 भोजन का उत्पादन

     5 भंडारण की सुविधा

     6 फ़ैशन

     7 पसंद और नापसंद

     8 परिवार में भोजन वितरण का तरीका

     9 भोजन में मिलावट

     10 शिक्षा का अभाव

     11 अज्ञानता 

 

कुपोषण के लक्षण - 

     (1) शारिरिक लक्षण - 

  आंखें चमकहीन,अंधापन,झुर्रियां,सूजन,हड्डियों का सूखना,अल्पपोषण या अतिपोषण, त्वचा पीली या झुर्रियां पड़ना, रूखी- सुखी और बेजान।

     (2) शारीरिक क्रियाएं -

             थकान महसूस होना 

             काम में आलसपन

             भुख प्यास की अस्थिरता

             नींद की अवस्था और बैचेनी

             भोजन का न पचना

     (3) व्यवहार के लक्षण - 

          बैचेनी,चिड़चिड़ापन, गुस्सा, आलस, घबराना।

 

कुपोषण से उत्पन्न रोग - 

(1) प्रोटीन की कमी से होने वाले रोग - 

(i) मैरम्मस -

    जब बालको में कैलोरी के साथ-साथ प्रोटीन की कमी हो जाए तो यह रोग हो जाता है। यह रोग 2 से 4 वर्ष के बालकों में अधिक होता है।

 लक्षण- शरीर में सूजन, मांसपेशियां कमजोर, वजन में कमी, खून की कमी,चिड़चिड़ापन।

उपचार - बच्चों को ऊर्जा और प्रोटीन की पूर्ति हेतु दाल, अनाजजाने दिया जाना चाहिए।ज्यादा भूख बढ़ाने हेतु आवश्यक टॉनिक देना चाहिए।

(ii) क्वाशियोकोर - 

        यह केवल प्रोटीन की कमी होता है। उन्हें कार्बोज पर्याप्त मात्रा में खिलाया जाता है।यह रोग 1 से 4 साल के बच्चों में होता है।

उपचार बच्चों को प्रोटीन की पूर्ति हेतु दाल, अनाज आदि।

 

(2) विटामिन की कमी से होने वाले रोग -

(i) विटामिन ए की कमी से -

       इसकी कमी से आंखो पर दुष्प्रभाव पड़ता है।इस कारण कई बच्चे हर साल अपनी आंखे गंवा देते है।

उपचार - हरी पत्तेदार सब्जियां, पीले फल, टमाटर, पपीता, आम, पुदीना, गाजर आदि में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

(ii) विटामिन बी¹ की कमी से - 

        इसकी कमी से बेरी बेरी रोग हो जाता है।यह रोग जब बच्चो में हो जाता है तो इसे बाल बेरी बेरी कहते हैं।

लक्षण - संपूर्ण शरीर में सूजन, ह्रदय का आकार बढ़ जाना, पैर के तलवे के जलन।

उपचार - इसके उपचार में बी¹ का इंजेक्शन4 दिन तक लगाया जाता है। और विटामिन बी1 एक सप्ताह में 2 से 3 बार 10gm तक दिया जाता है। आहार में तिल, मूंगफली, साबुत अनाज आदि दिया जाता हैं।


 

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CHAPTER -8
  संतुलित आहार

 

परिभाषा संतुलित आहार वह भोजन होता है जिसमें सभी पोषक तत्व व्यक्ति विशेष की शारीरिक आवश्यकता,आयु,वजन,अवस्था आदि के अनुसार उचित मात्रा में मौजूद होते हैं।

 

संतुलित भोजन को प्रभावित करने वाले कारक -

1) लिंग - 

        स्त्री और पुरुष की शारीरिक संरचना में जन्म से ही  विभिन्नता होती है। इसी कारण से दोनों में भोजन की मांग अलग-अलग होती है और पुरुषों में महिलाओं के अपेक्षा अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।

 

2) उम्र - 

         शिशु तथा बढ़ते बालकों में सभी पौष्टिक तत्वों की मात्रा अधिक चाहिए होती है क्योंकि इन अवस्थाओं में शारीरिक और मानसिक वृद्धि अधिक होती है। इसके बाद के वर्षों में विकास की वृद्धि कम हो जाती है तथा किशोर अवस्था में और बढ़ जाती है तब पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता अधिक होती है।

 

3) शारीरिक क्रियाशीलता -  

                    पौष्टिक तत्वों की मांग व्यक्ति की शारीरिक क्रिया पर निर्भर करती है इसे तीन भागों में बांट दिए हैं

(i)अधिक क्रियाशील व्यक्ति- इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति अधिक शारीरिक श्रम करते हैं इसलिए उन्हें अधिक मात्रा में पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता रहती है उदाहरण - मजदूर, कुली ,रिक्शा चलाने वाला आदि। 

(ii)मध्य क्रियाशील व्यक्ति- इस श्रेणी के अंतर्गत छोटे-छोटे काम करने वाले और  घरेलू काम करने वाले लोग सम्मिलित है इसलिए इन्हें कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

उदाहरण शिक्षक, चपरासी, डाकिया आदि।

(iii)साधारण क्रियाशील व्यक्ति- व्यक्ति जो मानसिक कार्य अधिक करते हैं तथा घरेलू कार्य नहीं करते इस श्रेणी में आते हैं।

 उदाहरण प्रोफेसर,डॉक्टर, आईएएस, आरएएस आदि।

 

4) स्वास्थ्य - 

              बीमारी में शरीर को क्रियाशीलता कम हो जाती है जबकि कुछ बीमारियों में इतनी पोषक तत्व की मांग बढ़ या घट जाती है।

 

5) जलवायू और मौसम -

              ठंडे प्रदेशों में रहने वाले लोगों को गर्म प्रदेशों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है क्योंकि सर्दी के मौसम में शरीर को बचाने तथा शरीर को गर्मी देने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अतः गर्म प्रदेशों के लोगों को कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है

 

6) शारिरिक अवस्था -

                  कुछ अवस्थाओं जैसे गर्भावस्था, प्रसव के बाद, ऑपरेशन के बाद, एक्सीडेंट के बाद अधिक समय पौष्टिक तत्व की मांग बढ़ जाती है।

 गर्भ काल में मां के द्वारा ग्रहण किया गया पोषण शिशु का विकास किया जाता है। एक साथ दो जीवन को पोषण होता है इसलिए पोषक तत्वों की मांग बढ़ जाती है ।

जन्म के बाद शिशु का पोषण मां के द्वारा होता है अतः दुग्ध उत्पादन हेतु पौष्टिक तत्व की आवश्यकता अधिक होती है ।

ऑपरेशन, दुर्घटना, बीमारीआदि स्थिति में भी शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है इसके शरीर से पौष्टिक तत्व बढ़ जाती है।

CHAPTER -9
 पोषक तत्व

 

वे रासायनिक पदार्थ जो शरीर में होने वाले सभी क्रियो का संपन्न करने के लिए तथा उत्तम स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं पोषक तत्व कहलाते हैं।

 पोषक तत्वों को निम्न में से भागों में विभाजित किया गया है 

1 कार्बोज/कार्बोहाइड्रेट

2 प्रोटीन

3 वसा 

4 खनिज लवण

5 विटामिन

6 जल 

 

(1)कार्बोहाइड्रेट -

               इसकी रासायनिक संरचना में कार्बन हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन तत्व पाए जाते हैं। इनका सामान्य सूत्र CH²O होता है।

कार्बोहाइड्रेट का वर्गीकरण दो आधार पर किया जाता है     

      भौतिक आधार और

      रासायनिक आधार 

 

(i) भौतिक आधार - दो प्रकार के होते हैं

 शर्करा- यह स्वाद में मीठी होती है।

         यह फल , गुड,चीनी,शहद,सब्जियों में पाई जाती है।

       यह जल में घुलनशील होती है।

       यह सभी जगह प्राकृतिक रूप से पाई जाती है।

 अशर्करा - यह स्वाद रहित होती है।

           यह पाउडर के रूप में होते हैं ।

          यह अघुलनशील होती है।

           इसका कोई आकार नहीं होता है ।

          यह पेड़ पौधों, फल,जल बीज,अनाज, दाल के छिलकों आदि में पाई जाती है।

 

(ii) रासयानिक आधार - 

 मोनोसेकैराइड - वह कार्बोहाइड्रेट जिसमें शर्करा का एक अणु उपस्थित होता है उसे मोनोसैचेराइड कहा जाता है।

 यह स्वाद में मीठे होते हैं। जल में घुलनशील होते हैं ।उनके शब्दों के पीछे ओज लगाया जाता है ।

उदाहरण ग्लूकोस, गैलेक्टोस ,फ्रुक्टोज।

डाईसेकेराइड - वह कार्बोहाइड्रेट जिसमें शर्करा की दोनों उपस्थित होते हैं उसे डिसैचेराइड कहा जाता है। यह स्वाद में मीठे होते हैं। जल में घुलनशील होते हैं उदाहरण - सुक्रोज इसे गन्ने की शर्करा या चुकंदर की शर्करा भी कहते हैं।

  माल्टोस इसे जई की शर्करा या अनाज के मिठास कहते हैं।

    लैक्टोज इसे दुग्ध की शर्करा कहते है।

पालीसेकेराइड - वह कार्बोहाइड्रेट जिसमें शर्करा के 3 या 3 से अधिक अणु उपस्थित होते हैं। उसे पालीसेकेराइड कहते है ।

उदहारण - स्टार्च, पेक्टिन, सेलुलोस।

 

कार्बोहाइड्रेट की प्राप्ति - 

     शक्कर, गुड, चीनी, शहद, सब्जियां, फल, अनाज।

 

 कार्बोहाइड्रेट के कार्य - 

ऊर्जा प्रदान करना 

प्रोटीन की बचत करना 

यकृत को स्वस्थ रखना

 विषाक्त पदार्थों को कम करना 

पाचन तंत्र को स्वस्थ रखना


 

(2) प्रोटीन -

               यह एक कार्बनिक यौगिक है। इसमें कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन तत्व पाए जाते हैं। प्रोटीन जल अपघटन के बाद वह अपनी सबसे सरलतम इकाई अमीनो एसिड में टूट जाता है। अतः अमीनो एसिड प्रोटीन की सूक्ष्मतम इकाई है।

प्रोटीन का वर्गीकरण निम्नानुसार हैं - 

 

(i) गुणवत्ता के आधार पर - किसी भी प्रोटीन की गुणवत्ता उसमे उपस्थित अमीनो एसिड की मात्रा, प्रकार और गुण पर निर्भर करता है।

निम्न प्रकार के होते है -

पूर्ण प्रोटीन - इसमें उपस्थित सभी आवश्यक अमीनो एसिड पर्याप्त मात्रा और उचित अनुपात में होते है।

आंशिक प्रोटीन - इनमे से कुछ आवश्यक अमीनो एसिड उपस्थित होते हैं।इसमें से एक या दो आवश्यक अमीनो एसिड की कमी रहती है।

अपूर्ण प्रोटीन - इस प्रकार के प्रोटीन में आवश्यक अमीनो एसिड का पूर्णतया अभाव पाया जाता है। इसलिए इसे प्रोटीन के सेवन करने से अथवा नहीं करने से शरीर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।

 

(ii) प्रोटीन के भौतिक गुण और रासायानिक आधार - 

साधारण प्रोटीन - इस प्रकार के प्रोटीन का निर्माण केवल अमीनो एसिड से होता है।ये प्रोटीन जल अपघटन के उपरान्त सबसे सरलतम इकाई के अमीनो एसिड में टूट जाते हैं।

संयुक्त प्रोटीन - ये वे प्रोटीन होते हैं जिसमे साधारण प्रोटीन के अणु के साथ साथ अन्य पोषक तत्व के अणु भी उपस्थित रहते है।

व्युत्पन्न प्रोटीन - इसका निर्माण सरल और संयुक्त प्रोटीन से होता है।जैसे पेप्टोन, पेप्टाइड, पॉलीपेप्टाइड।

 

 (iii) प्राप्ति साधन के आधार पर - 

वनस्पति जगत - वे प्रोटीन जो पेड़ पौधों से प्राप्त किया जाता हैं।ये आंशिक और अपूर्ण प्रकार के प्रोटीन होते हैं।

प्राणी जगत - ये उत्तम कोटि के होते हैं यह पूर्ण प्रोटीन होते हैं क्योंकि इनमें सभी आवश्यक अमीनो अम्ल के शरीर के लिए आवश्यक होते हैं,विद्यमान रहते हैं।

 जैसे दूध,दही,अंडा,मांस,पनीर,छाछ आदि।

 

प्रोटीन के गुण - 

1.कुछ प्रोटीन जल में घुलनशील होते हैं।

2. कुछ प्रोटीन कोलॉयडल घोल बनाते अर्थात जल में घुलने के उपरांत भी सूक्ष्म कणों में मौजूद रहते हैं।

3.गर्म करने पर प्रोटीन गाढ़े थक्के के रूप में जम जाते हैं ।

4.कुछ प्रोटीन तनु अम्ल और क्षार के घोल में घुलनशील होते हैं जबकि उदासीन के घोल में अघुलनशील होता है।

 

प्रोटीन के कार्य -

1.शरीर की वृद्धि एवं विकास करना

2. ऊर्जा प्रदान करना

3.शरीर के विभिन्न क्रियो के संपादन में मदद करना 4.हारमोंस का निर्माण

5. एंजाइम का निर्माण

6. विटामिन का निर्माण करना 

7.जल संतुलन को बनाए रखना 

8.रक्त का थक्का जमना 

9.तंतुओं के पुनर्निर्माण एवं मरम्मत करना 

10.दूध निर्माण में

 

प्रोटीन की कमी के प्रभाव -

(i) मैरम्मस -

    जब बालको में कैलोरी के साथ-साथ प्रोटीन की कमी हो जाए तो यह रोग हो जाता है। यह रोग 2 से 4 वर्ष के बालकों में अधिक होता है।

 लक्षण- शरीर में सूजन, मांसपेशियां कमजोर, वजन में कमी, खून की कमी,चिड़चिड़ापन।

उपचार - बच्चों को ऊर्जा और प्रोटीन की पूर्ति हेतु दाल, अनाजजाने दिया जाना चाहिए।ज्यादा भूख बढ़ाने हेतु आवश्यक टॉनिक देना चाहिए।

(ii) क्वाशियोकोर - 

        यह केवल प्रोटीन की कमी होता है। उन्हें कार्बोज पर्याप्त मात्रा में खिलाया जाता है।यह रोग 1 से 4 साल के बच्चों में होता है।

उपचार बच्चों को प्रोटीन की पूर्ति हेतु दाल, अनाज आदि।


 

(3) वसा (लिपिड) :-

                  यह कार्बनिक यौगिक है।यह ग्लिसरीन और वसीय अम्लों का मिश्रण होता है।इसमें कार्बोहाइड्रेट की तरह ही मुख्य रूप से तीन तत्व कार्बन हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन उपस्थित होते हैं।

रासायनिक संगठन- वसा का रासायनिक नाम ट्राइग्लिसराइड है। पाचन क्रिया के बाद वसा टूटकर एक अणु ग्लिसरोल और  तीन अणु वसीय अम्ल देता है।

   

  वसा = ग्लाइसरोल (1 अणु )+ वसीय अम्ल (3अणु)

 

ग्लाइसरोल - यह एक प्रकार का अल्कोहल होता है।इसमें तीन कार्बन अणु होते हैं। इसका अल्कोहल मुक्त होकर तीन वसीय अम्लों से जुड़ जाता है।

           CH2OH

           |

           CH2OH

           |

           CH2OH

 

वसीय अम्ल - वसीय अम्लों में भी कार्बन की श्रृंखला होती है। यह दो प्रकार के होते हैं

          i)संतृप्त वसीय अम्ल और 

          ii)असंतृप्त वसीय अम्ल

i)संतृप्त वसीय अम्ल

           इस प्रकार के वसीय अम्ल में कार्बन के सभी बंध संतृप्त होते हैं तथा प्रत्येक कार्बन परमाणु से हाइड्रोजन के दो अणु जुड़े होते हैं। 

ii)असंतृप्त वसीय अम्ल 

              इन वसीय अम्लों में कार्बन तथा हाइड्रोजन अणु की संख्या में असमानता होती है। इनमें हाइड्रोजन अणु की संख्या कार्बन की अपेक्षा कम होती है।

 

वसा के कार्य - 

 1.ऊर्जा प्रदान करना

2. शरीर में ऊर्जा का संग्रहण करना

3. शरीर के कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करना 

4.शरीर के तापक्रम को नियमित करना

5. प्रोटीन की बचत करना

6. स्वाद बढ़ाने में

 7.भोजन का परिमाण कम करने में

8. शरीर के महत्वपूर्ण उत्पादों के निर्माण में

 

वसा प्राप्ति के साधन :-  

        वसा एवं तेल प्राकृतिक रूप से प्राणिज एवं वनस्पति दोनों ही स्रोतों से प्राप्त होते हैं। कुछ भोज्य पदार्थ में वसा अदृश्य रूप में भी विद्यमान होते हैं जैसे अनाज, दाल , सूजी, सब्जियां,फल आदि। कुछभोज्य पदार्थ में वसा दिखाई देती है जैसे दूध घी मक्खन मूंगफली दही सोयाबीन सरसों के बीज आदि दूध में विद्यमान वसा को मक्खन या घी के रूप में परिवर्तित करके उपयोग में लिया जाता है।


 

(4) विटामिन :- 

                यह सक्रिय कार्बनिक यौगिक है,जो शरीर के उत्तम स्वास्थय के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर में इनकी अत्यल्प मात्रा में ही आवश्यकता होती है, फिर ये शरीर की वृद्धि, विकास, तंदुरुस्ती, चुस्ती और फुर्तीला बनाए रखने के लिए निहायत जरूरी होते हैं।

 

वसा में घुलनशील विटामिन - 

(i) विटामिन ए - 

शुद्ध रुप में विटामिन ए हल्के पीले रंग का रवेदार होता है।

यह वसा में घुलनशील तत्व है।यह अत्याधुनिक असंतृप्त अल्कोहल है,जी शरीर में इस्टर के रुप में संग्रहित रहता है।

यह विटामिन वायु की उपस्थिति में सूर्य की पराबैंगनी किरणों के सम्पर्क में ऑक्सीकृत होकर धीरे धीरे नष्ट हो जाता है।

 

कार्य:- 

आंखो को सामान्य दृष्टि प्रदान करना

शारीरिक वृद्धि में सहायक

प्रजनन अंगों के स्वास्थय में सहायक

त्वचा को स्वस्थ रखने में

अस्थियो के वृद्धि में सहायक

 

(ii) विटामिन डी -

यह अपने शुद्ध रुप में श्वेत, रवेदार, गंधरहित पदार्थ है।

यह ताप, वसा, ऑक्सीकरण के प्रति स्थिर होता है।

यह वसा और वसा घोलको में घुलनशील लेकिन जल में अघुलनशील होता है।

 

कार्य :- 

अस्थियो के निर्माण में

दांतो की मजबूती हेतू

रक्त में कैल्शियम की मात्रा को नियंत्रित करना

शारीरिक वृद्धि हेतू

 

(iii) विटामिन ई - 

यह पीले रंग का तेल जैसा पदार्थ होता है,जो वसा और वसाघोलको में घुलनशील होता है।

यह ताप और अम्ल के प्रति स्थिर रहता है।

क्षारीय माध्यम में यह धीरे धीरे नष्ट हो जाता है।

 

कार्य:-

विटामिन ए और कैरोटिन को ऑक्सीकृत होने से रोकना

लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण में

कोशिकाओ की रचनात्मक एकता को बनाए रखना

प्रजनन के सहायक

यह शरीर में कोलेस्ट्रॉल तथा विटामिन डी की उपयोगित को प्रभावित करता है।

 

(iv) विटामिन के - 

यह पीले रंग का पदार्थ है, जो वसा और वसा घोलको में घुलनशील होता है।

यह ताप के प्रति स्थिर रहता है, परन्तु अम्ल और क्षार की उपस्थिति में नष्ट हो जाता है।

सूर्य की पराबैंगनी किरणों की उपस्थिति में इसका नाश हो जाता है।

 

कार्य:- 

रक्त का थक्का जमाने में उपयोगी- रक्त में प्रोथरोम्बिन होता है।प्रोथरोम्बिन रक्त जमाने के लिए आवश्यक है।इसका निर्माण विटामिन के  द्वारा ही होता है।


 

जल में घुलनशील विटामिन - 

(i) विटामिन बी1 - 

इसे थायमिन भी कहा जाता है। यह पूर्णत जल में घुलनशील होता है।

यह अम्लीय माध्यम में स्थिर रहता है।

यह रंगहीन रवेदार पदार्थ है।

इसका स्वाद खमीर जैसा तथा गंध विशेष प्रकार का होता है।

 

कार्य - 

वृद्धि में सहायक

डीएनए और आरएनए के निर्माण में सहायक

पाचन क्रिया में सहायता करना

नाडियो को सामान्य स्थिति बनाएं रखने में सहायक

 

(ii) विटामिन बी2 -

इसे राइबोफ्लेविन भी कहा जाता है।यह जल में कम घुलनशील होता है।

जल में घुलने के बाद यह हरे - पीले रंग का द्रव बन जाता है।

इसका स्वाद कसैला होता है।

यह गंधरहित होता है।

 

कार्य:- 

शारीरिक वृद्धि में सहायक

कोशिकाओं के श्वाशन में

आंखों के उत्तम स्वास्थय के लिए

हार्मोन को नियंत्रित करना

 

(iii) विटामिन बी12 -

इसे साइनिकोबालमिन भी कहा जाता है।

जल में कम घुलनशील होता है।

इस विटामिन का उदासीन घोल ताप के प्रति स्थिर होता है।

इसका अणु भार 1355 होता है।

 

कार्य:-

को एंजाइम की तरह कार्य करना

कुछ जानवरो में वृद्धि उत्प्रेरक की तरह कार्य करता है।


 

(5) जल -

         जल जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक है।जीवन को बनाए रखने के लिए जल की महत्व आवश्यकता है हमारे शरीर का 60 से 70% भाग जल होता है ।

 

जल के कार्य:- 

घोलक के रुप में

शारीरिक तरलो के रुप में

शरीर तापक्रम को नियत रखने में 

स्नेहक के रूप में

पोषक तत्वों को कोषों तक पहुंचने के

कोमल अंगों की सुरक्षा में

पाचन में सहायक

पोषक तत्वों के हस्तांतरण में

 

शरीर में जल प्राप्ति के साधन:-

(1) तरल भोज्य पदार्थों से - चाय, दूध, दही, फलों का रस, शिकंजी, कॉफी, नारियल पानी।

(2) ठोस भोज्य पदार्थों से - अनाज, खोया, दाल, पनीर।

(3) ऑक्सीकरण की किया से - शरीर में कारबोज, वसा, प्रोटीन के द्वारा भी शरीर में जल उत्पन्न होता है।

       1gm = 6gm जल

       1gm = 1.07gm जल

       1gm = 0.41gm जल

 

शरीर से जल निष्कासन:- 

गुर्दों से मूत्र के रूप में

त्वचा से पसीना के रूप में

फेफड़ो से जलवाष्प के रुप में

धात्री माता से दुग्ध के रुप में

 

(6) खनिज लवण :- 

                  हमारे शरीर का कुल भार का 96% भाग पानी, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और  वसा के मिलने से बनता है। शेष 4% भाग खनिज लवण का होता है।

      खनिज लवण वह तत्व है जो कि पादप (plant) या जन्तु ऊतकों के पूर्ण रूप से जलने के पश्चात् राख के रूप में बचते हैं।

     आहारीय खनिज वे खनिज होते हैं, जो आहार के संग शरीर को मिलते हैं एवं पोषण करने में सहायक होते हैं। शरीर के लिए पांच महत्त्वपूर्ण तत्त्व कैल्शियम, मैग्नेशियम, फ़ास्फ़ोरस, पोटाशियम और सोडियम अत्यावश्वक होते हैं।

अम्लता वाले खनिज लवण

फास्फोरस

गंधक

सिलिकॉन

क्लोरीन

फ्लोरिन

आयोडिन

ब्रोमीन आदि

क्षार वाले खनिज लवण 

कैल्शियम

सोडियम

पोटाशियम

मैग्नेशियम

एल्यूमीनियम

 

भोजन में खनिजों के कार्य

भोजन में कुछ सामान्य खनिज पदार्थ और शरीर में उनके कार्य निम्नलिखित हैं।

 

कैल्शियम

  • रक्त का थक्का जमने में मदद करता है।

  • मांसपेशियों के संकुचन और तंत्रिका कार्य में मदद करता है।

  • मजबूत और स्वस्थ हड्डियों के निर्माण के लिए आवश्यक।

क्लोराइड

  • हमारे शरीर के तरल पदार्थों में रक्त की मात्रा, रक्तचाप और पीएच को उचित बनाए रखता है।

ताँबा

  • लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण.

  • तंत्रिका तंत्र के कामकाज में मदद करता है।

आयोडीन

  • थायरॉयड ग्रंथि के सामान्य कामकाज को बढ़ावा देता है।

  • मस्तिष्क के कार्यों को सुचारु रूप से कार्य करने में मदद करता है।

  • कोशिकाओं की सामान्य वृद्धि और विकास को बढ़ावा देता है।

लोहा

  • शरीर के सभी हिस्सों तक ऑक्सीजन पहुंचाने में मदद करता है।

  • आगे के चयापचय के लिए ऊर्जा का उत्पादन और भंडारण करता है।

गंधक

  • प्रोटीन संश्लेषण में शामिल.

  • आपकी कोशिकाओं को क्षति से बचाता है।

  • त्वचा के ढीलेपन और झड़ने को बढ़ावा देने में मदद करता है।

फास्फोरस

  • शरीर को ऊर्जा के भंडारण और उपयोग में मदद करता है।

  • मजबूत, स्वस्थ हड्डियों और दांतों के निर्माण में कैल्शियम के साथ काम करता है।

पोटैशियम

  • तंत्रिका आवेगों और मांसपेशियों के संकुचन को नियंत्रित करता है।

  • शरीर में द्रव संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।

  • मांसपेशियों और तंत्रिका तंत्र के समुचित कार्य को बनाए रखता है।


 

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CHAPTER - 10 
        भोजन की गुणवत्ता में वृद्धि


 

खाद्य सुदृढ़ीकरण (food fortification ):- 

                  खाद्य पदार्थों के प्रसंस्करण या उत्पादन के दौरान जानबूझकर प्रमुख विटामिन, खनिज, या अन्य आवश्यक पोषक तत्वों को जोड़ने की प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी को दूर करना और सामान्य आबादी द्वारा उपभोग किए जाने वाले भोजन की पोषण गुणवत्ता में सुधार करना है।

 

 महत्व-

       खाद्य सुदृढ़ीकरण व्यापक पोषण संबंधी कमियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों तक पहुंच सीमित है। इसमें आबादी के बड़े हिस्से तक पहुंचने की क्षमता है, जिससे यह एक प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप बन जाएगा।

 

कमियां:- 

       गरिष्ठ भोजन की कुछ सीमाएँ निम्नलिखित हैं:

  • असंसाधित भोजन के साथ गरिष्ठ खाद्य पदार्थों का सेवन करने से पोषक तत्वों की अधिकता का खतरा बढ़ सकता है।

  • केवल गरिष्ठ भोजन खाने और फलों और सब्जियों को नजरअंदाज करने से कम पोषण हो सकता है। असंसाधित खाद्य पदार्थों में एंटीऑक्सिडेंट और पौधे-आधारित बायोएक्टिव यौगिक होते हैं, जो हमें विभिन्न पुरानी बीमारियों और सूजन संबंधी स्थितियों से बचाते हैं।

  • फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों में संपूर्ण खाद्य पदार्थों की तुलना में अधिक कैलोरी होती है। इसलिए, प्रसंस्कृत फोर्टिफाइड भोजन अधिक खाने और धीरे-धीरे वजन बढ़ने का कारण बन सकता है।


 

खाद्य संवर्धन (food enrichment) :- 

        संवर्धन को "फोर्टिफिकेशन का पर्यायवाची" के रूप में परिभाषित किया गया है और यह भोजन में सूक्ष्म पोषक तत्वों को जोड़ने को संदर्भित करता है जो प्रसंस्करण के दौरान खो जाते हैं।

       जब खाद्य पदार्थों को संसाधित किया जाता है, तो वे अक्सर इस प्रक्रिया में विटामिन और खनिज जैसे कुछ महत्वपूर्ण पोषक तत्व खो देते हैं।

      यदि भोजन को "समृद्ध" लेबल किया गया है तो जो विटामिन और/या खनिज नष्ट हो गए थे उन्हें उसके मूल पोषण मूल्य में वापस लाने के लिए वापस जोड़ दिया गया है।

       कई उपभोक्ता सोचते हैं कि "समृद्ध" का अर्थ है कि भोजन में अतिरिक्त पोषक तत्व मिलाए गए हैं जो इसे और अधिक पौष्टिक बना देगा। यह सच नहीं है। इसे बस इसकी मूल स्थिति में बहाल कर दिया गया है।

 

प्रकार - 

        फोर्टिफिकेशन के दौरान खाद्य पदार्थों में विभिन्न पोषक तत्व शामिल किए जा सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:

1)विटामिन ए: विटामिन ए की कमी से निपटने के लिए इसे अक्सर चावल, आटा और खाना पकाने के तेल जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों में जोड़ा जाता है, जिससे दृष्टि संबंधी समस्याएं और कमजोर प्रतिरक्षा हो सकती है।

2)आयरन: एक प्रचलित वैश्विक स्वास्थ्य समस्या, आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया से निपटने के लिए अनाज, ब्रेड और पास्ता जैसे खाद्य पदार्थों में फोर्टिफ़ाइड।

3)आयोडीन: आयोडीन की कमी को रोकने के लिए नमक में मिलाया जाता है, जो थायराइड से संबंधित समस्याओं का कारण बन सकता है।

4)फोलिक एसिड: जन्म दोषों के जोखिम को कम करने और मातृ स्वास्थ्य का समर्थन करने के लिए अनाज में फोर्टिफ़ाइड।

 

खाद्य अनुपूरक (food supplement) :-

              खाद्य अनुपूरक एक ऐसी तैयारी है जिसका उद्देश्य आहार से गायब पोषक तत्वों की आपूर्ति करना है। 

 

लाभ - 

      आहार अनुपूरक आपके समग्र स्वास्थ्य को बेहतर बनाने या बनाए रखने में आपकी सहायता कर सकते हैं, और अनुपूरक आवश्यक पोषक तत्वों की आपकी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने में भी आपकी सहायता कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, कैल्शियम और विटामिन डी मजबूत हड्डियों के निर्माण में मदद कर सकते हैं, और फाइबर आंत्र नियमितता बनाए रखने में मदद कर सकते हैं। जबकि कुछ पूरकों के लाभ अच्छी तरह से स्थापित हैं, अन्य पूरकों पर अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। साथ ही, यह भी ध्यान रखें कि पूरक आहार विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों का स्थान नहीं लेना चाहिए जो स्वस्थ आहार के लिए महत्वपूर्ण हैं।


 

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Chapter -11    
भोजन समुह 

 

 

संतुलित आहार खाना हमारे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। पांच खाद्य समूहों में से प्रत्येक के भोजन का आनंद लें और आपको सर्वोत्तम पोषक तत्वों और विटामिन का शानदार मिश्रण मिलेगा।

 

1.कार्बोहाइड्रेट

        कार्बोहाइड्रेट आपको ऊर्जा, कैल्शियम और विटामिन बी देते हैं। ये पास्ता, चावल, जई, आलू और शकरकंद या नूडल्स, रतालू, कूसकूस, ब्रेड, जौ और राई परोस सकते हैं। नाश्ते के अनाज में कार्बोहाइड्रेट भी होता है और कई में अतिरिक्त आयरन भी होता है।

 

2.प्रोटीन

प्रोटीन को शरीर के लिए बिल्डिंग ब्लॉक्स के रूप में सोचें - वे इसे बढ़ने और खुद की मरम्मत करने में मदद करते हैं। प्रोटीन मांस, मछली और अंडे में पाया जाता है, जबकि नट्स, बीन्स, दाल, मटर, दाल, क्वॉर्न और सोया महान वनस्पति प्रोटीन हैं। ये खाद्य पदार्थ हमें आयरन और अन्य विटामिन और खनिज भी प्रदान करते हैं।

 

3.डेयरी उत्पाद

कैल्शियम, प्रोटीन और विटामिन ए, डी और बी12 जैसे विटामिन से भरपूर डेयरी उत्पाद हमारी हड्डियों और दांतों को स्वस्थ रखते हैं। हमारा शरीर दूध, दही, पनीर और पनीर जैसे खाद्य पदार्थों से कैल्शियम को आसानी से अवशोषित कर लेता है।

 

4.फल और सब्जियाँ

फल और सब्जियाँ - ताजा, जमे हुए, डिब्बाबंद, सूखे और जूस - हमारे आहार के लिए शानदार हैं। वे स्वास्थ्यवर्धक विटामिन, एंटीऑक्सीडेंट और फाइबर से भरपूर हैं - जो हमें पेट भरा हुआ महसूस कराते हैं और हमारे पाचन तंत्र को स्वस्थ रखते हैं - साथ ही उनमें कैलोरी भी कम होती है। विभिन्न प्रकार के फल और सब्जियाँ खाने से, आपको उनमें मौजूद महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की एक श्रृंखला मिलेगी।

 

5.वसा और शर्करा

यह महत्वपूर्ण है कि इस समूह के बहुत सारे खाद्य पदार्थ न खाएं क्योंकि वे हमें कैलोरी से बहुत सारी ऊर्जा देते हैं लेकिन बहुत अधिक पोषण नहीं देते हैं। मक्खन, मार्जरीन, खाना पकाने के तेल और सलाद ड्रेसिंग जैसे खाद्य पदार्थों को कम से कम रखने की कोशिश करें और कभी-कभार खाने के लिए चॉकलेट, क्रिस्प्स, शर्करा युक्त शीतल पेय, मिठाई, जैम, क्रीम, केक, पुडिंग, बिस्कुट और पेस्ट्री को बचा।

 

                  

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CHAPTER -12
        अनुशंसित आहार भत्ता 

        

“एक स्वस्थ व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन की पोषण आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लिये जाने वाले आहार में पोषकों की औसत मात्रा को RDA कहा जाता है। भारत में RDA की मात्रा का निर्धारण विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) तथा राष्ट्रीय पोषण संस्थान (National Institute of Nutrition-NIN) द्वारा किया जाता है।

सिद्धांत:-

  • आरडीए के अनुसार, एक वयस्क को प्रतिदिन 5 ग्राम से अधिक नमक, 60 ग्राम वसा, 300 ग्राम कार्बोहाइड्रेट और 2.2 ग्राम ट्रांस वसा का सेवन नहीं करना चाहिए। प्रति 100 ग्राम जंक फूड के नमूने में नमक, वसा, ट्रांस वसा और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा आरडीए के भीतर अनुशंसित मात्रा से कहीं अधिक पाई गई।

  • RDA का अर्थ है पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों की आपके बच्चे को वृद्धि और विकास के लिए आवश्यकता है। आरडीए को कभी-कभी अनुशंसित आहार सेवन भी कहा जाता है। कभी-कभी एक पारंपरिक भोजन पूरा नहीं होता है। इस वजह से बच्चों को आरडीए (अनुशंसित आहार भत्ता) का 100 प्रतिशत नहीं मिल पा रहा है। इस अंतर को सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरा जाना चाहिए। 

  • अनुशंसित आहार भत्ता (आरडीए) स्वस्थ व्यक्तियों के लिए पर्याप्त पोषक तत्वों का सेवन प्राप्त करने के लिए एक गाइड के रूप में उपयोग किया जाने वाला मूल्य है। इसका उद्देश्य समय के साथ औसत आय करना है; दैनिक बदलाव अपेक्षित हैं। निर्दिष्ट जीवन चरण समूहों के लिए आरडीए अलग-अलग निर्धारित किए जाते हैं और कभी-कभी पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग होते हैं।


 

आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया (आईडीए):

       आईडीए तब होता है जब हीमोग्लोबिन बढ़ता है उत्पादन काफी कम हो गया है और इसका परिणाम निम्न स्तर पर है रक्त में हीमोग्लोबिन. लक्षण गिरावट की दर पर निर्भर करते हैं हीमोग्लोबिन चूँकि ऑक्सीजन ले जाने के लिए हीमोग्लोबिन की आवश्यकता होती है शरीर, किसी भी शारीरिक परिश्रम से सांस की तकलीफ (सांस फूलना) हो जाती है थोड़ा सा परिश्रम करने पर) और व्यक्ति को थकान की शिकायत होती है और महसूस हो सकता है सुस्त। आईडीए की अभिव्यक्तियों में सामान्य पीलापन, पीलापन शामिल है आँखों का कंजंक्टिवा, जीभ और नाखून का आधार और कोमल तालु।

 

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CHAPTER -13
  पाचन, अवशोषण और उपापचय 


 

पाचन:-

      पाचन रक्तप्रवाह में अवशोषण के लिए बड़े, अघुलनशील भोजन अणुओं को छोटे अणुओं में तोड़ने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में लार, बलगम, पित्त और हाइड्रोक्लोरिक एसिड जैसे कई पाचन तरल पदार्थ और एंजाइमों का उपयोग शामिल होता है।

मानव शरीर में भोजन पाचन के चार प्राथमिक चरण होते हैं जिनमें शामिल हैं:

  • मुंह के माध्यम से भोजन ग्रहण करने के बाद, यह पेट के माध्यम से छोटी आंत में जाता है, जहां यह पच जाता है।

  • पचे हुए भोजन से पोषक तत्व छोटी आंत में छोटे छिद्रों के माध्यम से रक्तप्रवाह में अवशोषित हो जाते हैं।

  • बचा हुआ अपाच्य भोजन बड़ी आंत में भेजा जाता है, जहां कोई भी असंसाधित पानी या पोषक तत्व शरीर में पुनः अवशोषित हो जाते हैं।

  • शेष अपशिष्ट खाद्य उत्पाद मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है।

 

अवशोषण:-

          अवशोषण प्रसार या परासरण की प्रक्रिया के माध्यम से पदार्थों को कोशिकाओं में या ऊतकों और अंगों में अवशोषित या आत्मसात करने की प्रक्रिया है।


 

प्रोटीन का पाचन और अवशोषण:-

              प्रोटीन शरीर की कोशिकाओं और ऊतकों की वृद्धि और पुनःपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रोटीन का पाचन पेट में प्रोटीज और पेप्सिन एंजाइम की मदद से होता है, जो प्रोटीन को अमीनो एसिड में तोड़ देता है । यह प्रक्रिया पेट में मौजूद हाइड्रोक्लोरिक एसिड द्वारा सुविधाजनक होती है। अमीनो एसिड छोटे तत्व होते हैं जो छोटी आंत की दीवार के माध्यम से रक्त प्रणाली में अवशोषित हो जाते हैं।

 

लिपिड का पाचन और अवशोषण :-

                लिपिड फैटी एसिड युक्त कार्बनिक यौगिक हैं, जो पानी में अघुलनशील होते हैं। वसा लिपिड का सबसे आम उदाहरण हैं। लिपिड का अघुलनशील गुण वसा के पाचन और अवशोषण को एक जटिल प्रक्रिया बना देता है।

    चूंकि वे हाइड्रोफोबिक होते हैं, पेट में पहुंचने के बाद वसा अघुलनशील द्रव्यमान के एक बड़े गोले के रूप में एक साथ चिपक जाते हैं। यह पित्त रस की मदद से टूट जाता है, जिसमें पित्त लवण होते हैं। फिर इन टूटे हुए अणुओं पर अग्नाशयी लाइपेज, शरीर में प्रमुख वसा-अवशोषित एंजाइम, द्वारा कार्य किया जाता है।

 

चयापचय(metabolism)

      शरीर की कोशिकाओं में होने वाली रासायनिक प्रतिक्रियाएं हैं जो भोजन को ऊर्जा में बदलती हैं। हमारे शरीर को आगे बढ़ने से लेकर सोचने और बढ़ने तक सब कुछ करने के लिए इस ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

      शरीर में विशिष्ट प्रोटीन चयापचय की रासायनिक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। हमारी कोशिकाओं को स्वस्थ और कार्यशील बनाए रखने के लिए हजारों चयापचय प्रतिक्रियाएं एक ही समय में होती हैं - सभी शरीर द्वारा नियंत्रित होती हैं।

     मेटाबॉलिज्म एक संतुलन क्रिया है जिसमें दो प्रकार की गतिविधियां एक साथ चलती हैं:

  1. शरीर के ऊतकों और ऊर्जा भंडार का निर्माण (जिसे उपचय कहा जाता है)

  2. शरीर के कार्यों के लिए अधिक ईंधन प्राप्त करने के लिए शरीर के ऊतकों और ऊर्जा भंडार को तोड़ना (जिसे अपचय कहा जाता है)

 

उपचय या रचनात्मक चयापचय:-

      यह निर्माण और भंडारण के बारे में है। यह नई कोशिकाओं के विकास, शरीर के ऊतकों के रखरखाव और भविष्य में उपयोग के लिए ऊर्जा के भंडारण का समर्थन करता है। उपचय में, छोटे अणु कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा के बड़े, अधिक जटिल अणुओं में बदल जाते हैं।

 

अपचय या विनाशकारी चयापचय :- 

      वह प्रक्रिया है जो कोशिकाओं में सभी गतिविधियों के लिए आवश्यक ऊर्जा पैदा करती है। कोशिकाएं ऊर्जा जारी करने के लिए बड़े अणुओं (ज्यादातर कार्बोहाइड्रेट और वसा) को तोड़ती हैं। यह उपचय के लिए ईंधन प्रदान करता है, शरीर को गर्म करता है, और मांसपेशियों को सिकुड़ने और शरीर को चलने में सक्षम बनाता है।

जैसे-जैसे जटिल रासायनिक इकाइयाँ अधिक सरल पदार्थों में टूटती हैं, शरीर त्वचा, गुर्दे, फेफड़ों और आंतों के माध्यम से अपशिष्ट उत्पादों को छोड़ता है।

 

                  

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                                                                                                    (UNIT -4)

CHAPTER -14 
  फाइबर और फैब्रिक 


फाइबर और कपड़ा :-

      वह पदार्थ जो पतले एवं सतत रेशे के रूप में उपलब्ध होता है, रेशा कहलाता है। रेशा बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले रेशे के खींचे और मुड़े हुए धागे को सूत कहा जाता है। कपड़ा सूत से बनता है और सूत रेशों से बनता है। सूत से कपड़ा बनाने के लिए करघे का उपयोग किया जाता है। करघा पावरलूम या हैंडलूम हो सकता है। रेशों का उपयोग कपड़ा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। दो धागों का उपयोग एक साथ किया जाता है एक लंबाई के हिसाब से जबकि दूसरा क्रॉस के हिसाब से। आड़े-तिरछे सूत को बाना कहा जाता है।

 

फाइबर के प्रकार:- 

        फाइबर को प्राकृतिक फाइबर और सिंथेटिक फाइबर के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

 

1. प्राकृतिक रेशे  प्राकृतिक स्रोतों, यानी पौधों और जानवरों से प्राप्त होते हैं। प्राकृतिक रेशे मोनोमर्स नामक सरल अणुओं से बने होते हैं जो एक साथ जुड़कर पॉलिमर बनाते हैं।

उदाहरण: कपास, जूट, रेशम, ऊन, आदि।

 

2. सिंथेटिक फाइबर मानव निर्मित फाइबर हैं और किसी भी पौधे और पशु स्रोतों से प्राप्त नहीं होते हैं।

उदाहरण: नायलॉन, पॉलिएस्टर और ऐक्रेलिक।

 

3. पादप रेशे: पादप स्रोतों से प्राप्त रेशे पादप रेशे कहलाते हैं।

उदाहरण: कपास, जूट, कॉयर और लिनन।

 

4.पशु रेशे: पशु स्रोतों से प्राप्त रेशे पशु रेशे कहलाते हैं।

उदाहरण: ऊन और रेशम।

 

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     (UNIT -5)
 
CHAPTER -18
         गृह प्रबन्धन की प्रक्रिया 


 

पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पारिवारिक साधनों का उपयोग किया जाता है जिसमे नियोजन करना, नियंत्रण करना, तथा मूल्यांकन करना सम्मिलित होते है, प्रबंध प्रक्रिया कहलाता है।" गृह प्रबंध प्रक्रिया के प्रमुख चार चरण है, ये चरण एक दूसरे पर आधारित एवं अन्तसंबंधित है।

 

   (1) नियोजन एवं योजना बनाना (planning)

 

  किसी वांचित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पहले से ही

कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना। नियोजन कहलाता है। नियोजन उद्देश्यपूर्ण निर्णयों की श्रृंखला है, जो कार्य करने के सर्वोत्तम तरीके एवं उसके क्रम का निर्धारण करता है।

 

विशेषताएँ :-

(i) नियोजन का उद्देश्यों एवं लक्ष्यों पर आधारित होना।

(ii) नियोजन सतत् चलने वाली एक प्रक्रिया है।

(iii) नियोजन एक लोचमय एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया है

(iv) नियोजन एक बौद्धिक व मानसिक प्रक्रिया है। 

(v) विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम का चयन

(vi) नियोजन की सर्वव्यापकता 

(vii) पूर्वानुमानों पर आधारित प्रक्रिया

 (viii) नियोजन की पारस्परिक निर्भरता


 

नियोजन के मुख्य चरण:-

 (i) उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को निर्धारित करना

 (ii) सूचनाओं का संकलन एवं विश्लेषण।

(iii) नियोजन के आधारों का निर्धारण करना एक वैकल्पिक तरीकों का निर्धारण करना।

(iv) वैकल्पिक तरीकों का मूल्यांकन करना। 

(v) कार्यविधि के सर्वोत्तम तरीके का चयन करना।

(vi) भोजन तैयार करना।

(vii) आवश्यक उपयोजनाओं का निर्माण करना।

(viii) कार्यक्रम का समय व क्रम निर्धारित करना। 

(ix) परिवार के सदस्यों की सहभागिता प्राप्त करना।

(x) अनुसरण करना।

 

नियोजन की सीमाएँ:-

 (i) सर्वोत्तम विकल्प के चयन में परेशानी!

 (ii) समस्याओं को पहचानकर उन्हें परिभाषित करने मे

   अडकने एवं कठिनाई ।

  (iii) समय, शक्ति व धन का अपव्यय

 (iv) अरुचिकर, उत्ताक एवं अवसादपूर्ण कार्य । 

(v) कल्पनाशक्ति का अभाव

(vi) आकस्मिक घटनाएँ।

 (vii) दूरदर्शिता का अभाव

(viii) अपर्याप्त मानसिक व बौद्धिक क्षमता

 

       

              (2) नियंत्रण (controlling )

 

प्रबंध प्रक्रिया का तीसरा महत्वपूर्ण चरण है। इसके "अन्तर्गत संगठन को कार्य रूप मे परिगल किया

जाता है। 'पूर्व निर्धारित लक्ष्यो व उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जो कार्य योजनानुसार किया जा रहा है, सही तरीके से सही समय पर हो रहा है अथवा नहीं? क्या बाधाएँ आ रही है? क्या कमियाँ हैं?

   इन सभी कार्यो मे आने वाली बाधाओं को यथासंभव दूर कर कार्य को पुन: शुरू करने से है, जिसे नियंत्रण कहते है।

 

विशेषताएँ:-

   (i) नियंत्रण एक मनagement work है।

  (ii) नियंत्रण एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। 

   (ii) नियंत्रण तथ्यों पर आधारित होता है।

   (iv) नियंत्रण एक संपूर्ण पद्धति है। 

   (v) नियंत्रण हस्तक्षेप से भिन्न है।

   (vi) नियंत्रण सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनो होता है।

   (vii) यह प्रबंध के सभी स्तरो पर लागू होता है।

   (viii) नियंत्रण नियोजन पर आधारित होता है। 

   (ix) नियंत्रण का क्षेत्र व्यापक है।

 

नियंत्रण के चरण:

     (i) क्रियान्वन को शक्ति प्रदान करना। 

    (ii) जाँच करना (checkering)

     (iii) समायोजित करना (Adjusting)

 

     

            (3) मूल्यांकन (Evalution) 

 

प्रबंध प्रक्रिया का चौथा महत्वपूर्ण कदम है जो प्रक्रिया को पुन: प्रारंभिक चरण अर्थात् नियोजन की ओर ले जाता है।

    'कार्य योजनानुसार सम्पन्न हुआ या नहीं, क्या बाधा आई, उद्देश्यो की प्राप्ति किस सीमा तक दुकिए। इन सबकी जानकारी प्राप्त करना ताकि भविष्य मे जाने वाले कार्यो में प्रभावशाली निर्णय लेकर बेहतर तरीके से कार्य सम्पन्न करवा सके, मूल्यांकन कहलाता है।

 

उद्देश्य -

   (i) यह देखना कि क्या प्राप्त हो चुका है।

  (ii) अगली योजना के लिए आधार के रूप में प्रयोग लाना।

   (iii) नई अन्तर्दृष्टि प्राप्त करना

   (iv) संपूर्ण योजना को संशोधित करने के लिए आधार प्रस्तुत करना

 

मूल्याकंन के प्रकार:-

   (1) सापेक्ष मूल्याकंन (Relative Evaluation) 

                 इस प्रकार के मूल्याकंन में योजना की समप्ति पर लक्ष्यों की प्राप्ति किस अंश होती है। तक हुई है। यह सामयिक व साधारण पूर्व योजना से प्राप्त लक्ष्य वर्तमान योजना के लिए निश्चित किए गए लक्ष्य

परिवार पूरा प्राप्त लक्ष्य व्यक्ति की कार्यक्षमता

 

  (2)निरपेक्ष मूल्याकन (edhaalute Swaluation )        

               इस प्रकार के मूल्यांकन में तुलना करने की है कि योजना कहाँ तक सफल हो पास है। इसलिए व्यावहारिक तौर पर इस मूल्यांकन का महत्व अत्यल है क्योंकि जब भी आयोजनकर्ता किसी कार्य की अच्छाई-बुराई का विश्लेषण करता है मस्तिष्क में उस कार्य के परिणाम का तब उसके चित्र जरूरत नहीं होता है।

 

           

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CHAPTER - 19
           मूल्य, स्तर और आवश्यकता

    

  मूल्य (value) :-

              मूल्य जीवन को सार्थकता प्रदान करने वाला वह उत्प्रेरक कारक है, जिसका सृजन ( मूल्यांकन) व्यक्ति द्वारा होता है। यह मानवीय व्यवहारो को एवं कार्यो को नियंत्रित करता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर होता हुए अपने लक्ष्यों को पाने मत्र अभाव मे में सफल होता है। परंतु इसका उद्देश्य सदैव प्रावी की भलाई सेवा और कल्याण "मूल्यों का कोई अस्तित्व नही है। से है। इसके

 

 विशेषताएं:-

1)मूल्य हमेशा व्यक्तिगत होते है। इसी कारण ये मूल्य ग्रहण वाले व्यक्ति के लिए हमेशा ही महत्वपूर्ण होते हैं। 2)) मूल्य ऐच्छिक और संतुष्टि प्रदान करने वाले होते है। 3)) मूल्यों में स्व- निर्माण व विकास करने की योग्यता होती है।

4) मूल्य निर्देशात्मक होते है। यह व्यक्ति को कार्य करने की प्रेरणा देते है।

5) मूल्य व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होते है। यह व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करते है।

 

मूल्य के प्रकार :

(1) प्रभुत्व के आधार पर :-

         (i) आंतरिक मूल्य :- शक्ति में पाए जाने वाले प्राकृतिक गुण मूल्य आंतरिक मूल्य कहलाते हैं। इस पर किसी का दबाव नही होता है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण

एवं वांछनीय होते हैं। उदा माँ-बेटे का भु प्रेम, कला एवं सौन्दर्य के प्रति कथि।

         (ii) आदशत्मिक मूल्य = ये वे मूल्य होते हैं, जो नैतिकता पर आधारित होते है। इनके सृजन मे। के समय सही गलत, उचित-अनुचित, सत्य-असत्य का ध्यान रखा जाता है।

उदा.किसी व्यक्ति के जीवन में धन कमाना, या सफलता प्राप्त करना आवश्यक हैं तो किसी के लिए कर्तव्यनिष्ठा था ईमानदारी ।

 

(2)पार्कर के अनुसार -

        (i) क्रियात्मक मूल्य- ये वे मूल्य होते है, जो वातावरण के साथ समायोजन करने के तथा उसमे पारस्परिक अंतक्रिया करना सिखाते है। इसमें वस्तुओं की वास्तविकता पर विश्वास किया जाता है।

        (ii) कल्पनात्मक मूल्य - ये मूल्य कल्पना , कला एवं सौन्दर्य की अभिव्यक्ति से प्राप्त संतुष्टि पर आधारित होते है। मस्तिष्क से इसकी उत्पत्ति होती है।

 

स्तर (Standards):-

             स्तर की उत्पत्ति मूल्य से होती है। मूल्य एवं लक्ष्य एक-दूसरे से घनिष्ठता से सम्बन्नित होते है| स्तर व मूल्य व लक्ष्य भी संबंधित होते है। स्तर एक आंतरिक मानक है, जिसका चित्र मानस पटल पर चित्रित होता है। व्यक्ति इसे पूरा करता कोई बाहरी एवं नियम दबाव नही होता है। जो व्यक्ति को उसे पूरा करने हेतू दबाव डाले। यह केवल व्यक्ति विरोधकर या समूह द्वारा मान्यता प्राप्त तरीकों से किया जाता है।

 

स्तर का वर्गीकरण :-

  (1)परम्परागत स्तर (Traditional or conventional Sthandrad) :-

            परम्परागत स्तर रुदिगत एवं स्थिर होते है। इन्हें समाज के बड़े समूह द्वारा स्वीकार किया जाता है। परिवार इसे बिना विचारे अपनाता है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करता है। व्यक्ति समाज में रहता है। वह समाज द्वारा निर्धारित नियमों मूल्यो एवं स्तरों की पालना न चाहते हुए भी करता है। उदा घर में प्रतिदिन उठकर झाडू लगाना, पोछा लगाना रसोई गृह की सफाई, चूल्हा साफ करना ,कपड़े धोना आदि।

 

(2)परिवर्तनशील स्तर C.changeable standrad)     

             ये स्तर परम्परागत स्तर को रुचि, आधारविपरीत होते है। जिन्हें व्यक्ति अपनी इच्छा,के बड़े समूहों द्वारा मान्यता नही दी जाती है। न ही अपनाया जाता है जैसे पर्याप्त समय होने पर हम घर के प्रत्येकक में झाड़ू लगाते है, पोछा करते हैं घर की सभी चीजों को भली भाँति झाड पोहंकर व्यवस्थित करते है। यहाँ तक कि दीवार व छत पर लगे जाले को भी द कमरे साफ करते हैं। परंतु जब समय कम होता है। तो केवल कमरे की ऊपरी सतह पर झाड़ू लगाकर, धूल पोहनकर चीजो को व्यवस्थित कर देते है। 

 

लक्ष्य (Goal) :-

        लक्ष्य निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जो जीवन पर्यंत चलती रहती है। इसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपने मूल्यों, इच्छाओं विचारधाराओं एवं अभिवृतियों में परिवर्तन करता रहता है। यदि उसे किसी लक्ष्य की पूर्ति होने की आशा कम होती नजर आती है, तो वह उन लक्ष्यो को छोड़कर नए लक्ष्यों का निर्माण करता है।

 

लक्ष्य की विशेषताएँ:-

   (1) यह निरंतर चलने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है। 

   (2) यह समय पर आधारित होते है। 

   (3)लक्ष्य परिवर्तनशील होते है।

   (4) लक्ष्य से व्यक्तित्व का विकास होता है।

   (5) लक्ष्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनो ही प्रकार के

         होते हैं।

   

लक्ष्य का वर्गीकरण :-

  (1)तात्कालिक या अल्पकालिक लक्ष्य :-

           ये लक्ष्य अधिक स्पष्ट और निश्चित होते हैं तथा असंख्य होते है। प्रत्येक परिवार प्रतिदिन इन लक्ष्यों का निर्माण एवं खोज करता रहता है तथा तीव्रता के अनुसार इन्हे प्राप्त भी करता है। सभी लक्ष्य समान रूप से महत्वपूर्ण एवं उपयोगी नही होते है। वे लक्ष्य जो अत्यधिक महत्वपूर्ण होते है। उनकी पूर्ति पहले की जाती है। जैसे- गृह सज्जा, बर्तन मांजना, वस्त्र धोना आदि।

 

  (2)साधन समाप्ति लक्ष्य :-

          ऐसे लक्ष्यों की पूर्ति स्वतः ही कुछ क्रियाओं के बाद पूर्ण हो जाती है, जैसे बैंक से पैसे निकलना !

 

 (3)दीर्घकालिक लक्ष्य :

         जिन्हें प्राप्त करने में अधिक समय लगता है। कुछ लक्ष्यो को प्राप्त करने मे महीनो व साथी जाग जाते है।। अधिक स्थायी होते हैं। जैजे भवन-निर्माण, उच्च शिक्षा प्राप्त करना है।


 

आवशयकता (need) :- 

   आवश्यकता आविष्कार की जननी है। विकास की दृष्टि से आवश्यकता का महत्वपूर्ण स्थान है। "जब कोई इच्छा प्रभावहीन एवं निष्क्रिय होती है तो इसे इच्छा करते है। वही इच्छा सक्रिय एवं प्रभावोत्पादक होती है तो उसे आवश्यकता कहते है। अतः आवश्यकता के लिए तीन बातो का होना जरूरी है,

   (1) व्यक्ति के वस्तु की इच्छा का होना 

 (2) इच्छा को संतुष्ट करने का सामर्थ्य (पर्याप्त धन)।  (3) व्यय की तत्परता

 

आवश्यकताओं की विशेषताएँ

(i)आवश्यकताएँ असीमित होती है।

(ii)आवश्यकताओं को पूर्णत संतुष्ट किया जा सकता है। (ii)कुछ आवश्यकताएँ एक-दूसरे की पूरक होती है। (iv)आवश्यकताओं में आपस में प्रतियोगिता होती है।

(v)कुछ आवश्यकताओं की पुनरावृत्ति होती है। (vi)आवश्यकताओं की तीव्रता में भिन्नता होती है।

(vii)कुछ आवश्यकताएँ वैकल्पिक होती है। (viii)आवश्यकताएँ परिवर्तनशील होती हैं।

(ix) आवश्यकताएँ आदत में बदल जाती है। (x)आवश्यकताएँ सामाजिक रीति रिवाजों एवं फैशन से भी प्रभावित होती है।

 

 आवश्यकताओं का वर्गीकरण : 

       आवश्यकताओं को निम्न तीन वर्गो में बाटा गया है-

(1)अनिवार्य आवश्यकताएँ:-

        वे अनिवार्य आवश्यकताएँ जिनकी संतुष्टि करना आवश्यक होता है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं है।

जैसे- जल हवा, भोजन , वस्त्र, आवास आदि। इसे तीन वर्गों में बाँटा गया है

(i) जीवन रक्षक आवश्यकता

(ii) निपुणता रक्षक आवश्यकता 

(iii) प्रतिष्ठा रक्षक अनिवार्य आवश्यकता

 

(2)आरामदायक आवश्यकता :- 

        वे आवश्यकताएँ जिनकी पूर्ति से व्यक्ति को सुख एवं आराम मिलता है, कार्यकुशलता में वृद्धि होती है, प्रसन्न आती है। रहन-सहन का स्तर उच्चाउन हो जाता है

 

(3)विलासिता संबंधी आवश्यकताएँ:

        इसके अन्तर्गत वे वस्तुएँ आती है जिनके उपयोग से व्यक्ति को कुछ (समय) खण के लिए अत्यधिक सुख व आनंद की प्राप्ति होती है। परंतु इससे कार्यक्षमता में कोई वृद्धि नही होती है।

इसको तीन वर्गो में बाँटा गया है

 (i) हानिरहित विलासितात्मक

(ii) धनिकारक विलासात्मक

(iii) सुरख्यात्मक विलासात्मक


 

साधन (Resource):-

गृह व्यवस्था में पारिवारिक साधनों का उपयोग ऐसी कुशलता के साथ किया जाता है, ताकि पूर्व निर्धारित मूल्यो एवं लक्ष्यो को प्राप्त किया जा सके। अत: सर्वोत्तम गृह प्रबंध करने के लिए साधनों का कुशल प्रयोग करना आना चाहिए।

 

साधनों का वर्गीकरण 

     पारिवारिक साधनों को मुख्यत दो वर्गो में बाँटा जा सकता है -

 

                (1) मानवीय साधन

 

मानवीय साधन व्यक्ति के अन्तर्निहित गुण हैं। इसके अन्तर्गत व्यक्ति, परिवार के सदस्यों के जन्मजात एवं अर्जित दोनो ही आते है। प्रत्येक की सीमित बौद्धिक त मानसिक क्षमताएँ होती है। परंतु निरंतर अभ्यास एवं ज्ञानवृद्धि द्वारा इसे बढ़ाया जा सकता है। मानवीय साधन निम्न है -

(i) योग्यता

 (ii) रुचि

(iii) ज्ञान

(iv) शक्ति

(v) अभिवृत्तियाँ

 (vi) कौशल

(vii) समय

 

                (2) अमानवीय साधन

 

अमानवीय अर्थात् भौतिक साधन धन से प्राप्त किए जाते है। इन्हें देखा, सूंघा एवं स्पर्श किया जा सकता हैं। मकान स्कूटर, भोज्य सामग्री, वस्त्र चल एव अचल सम्पति औजार, बर्तन उपकरण आदि वस् भौतिक साधन के उदाहरण है। वस्तुएँ भौतिक साधन के अन्तर्गत निम्न सेवाएँ है-

   (i) धन 

   (ii) भौतिक वस्तुएँ

   (iii) सामुदायिक सुविधाएँ

    (iv) समय एवं ऊर्जा


 

साधनों की विशेषताएँ :

(i) सभी साधन सीमित होते है।

(ii) समस्त साधन उपयोगी होते हैं। 

(iii) साधन विकसित किए जा सकते है।

(iv) साधन पारस्परिक संबधित होते है। 

(v) साधनों के उपयोग पर प्रबंध प्रक्रिया का प्रभाव पडता है।

(vi) साधनों के उचित प्रयोग से जीवन स्तर में बढ़ोतरी होती है।

 

          

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Chapter - 20
 कला के तत्व 

 

    "मानव के भावों की सहज अभिव्यक्ति का नाम कला है।" वस्तुत "कला व्यक्ति के विचारों और भावों का इस ढंग से अभिव्यक्तकरण हैं कि यह उसे सुख, आनंद, हर्ष, उल्लास और संतुष्टि प्रदान करता है।"

     "जब किसी भी दक्षता का उपयोग सौन्दर्य और आकर्षन उत्पन्न करने के लिए किया जाता हैं तो उसे कला कहते हैं " 

 

कला के तत्व:- 

                 कला के प्रमुख तत्त्व निम्नानुसार हैं - 

(1) रेखा:- 

           गृह सज्जा में रेखा का अमूल्य योगदान है।यह किसी भी कलात्मक स्रजनात्मकता की पहली महत्वपूर्ण और आवश्यक इकाई है।यह किसी भी कला का आधार है चाहे वो चित्रकला हो या हस्तकला, भवन निर्माण हो या वस्त्र कला।इसके बिना कलात्मक वस्तुओं का निर्माण नही हो सकता।

रेखा का अर्थ होता है - दो बिंदुओं के मध्य का बहाव।

दो। बिंदुओं के मध्य जिस प्रकार का बहाव होगा उसी प्रकार की रेखा का निर्माण होगा,जैसे गोल, तिरछा, खडा, आड़ा, वक्र आदि।

रेखाएं चार प्रकार की होती हैं -

(i) लंबवत रेखाएं - 

         ये रेखाएं खड़ी होती है।इनमे लंबाई का आभास होता है। यह जोश उत्साह का भाव मस्तिष्क में उत्पन्न करती है।पर्दे, बेडशीट आदि में इसका उपयोग किया जाता है।

(ii) समतल रेखा/आड़ी रेखा - 

         यह विश्राम, स्थिरता का भाव मस्तिष्क में उत्पन्न करती है।इसमें चौड़ाई का आभास होता हैं।इसका उपयोग किताबो के शेल्फ, बेडकवर आदि में किया जाता हैं।

(iii) तिरछी रेखा -    

          यह शालीनता, नामनीयता का भाव प्रकट करती है। तकिया, कुशन कवर, गद्दीया, मेजपोश आदि में इसका उपयोग किया जाता हैं।

(iv) वक्र रेखा - 

          यह खुशी, आनन्द, प्रसन्नता, समृद्धि के भाव प्रकट करती है।इसका उपयोग खिड़कियां एवं दरवाजे में किया जाता हैं।

 

(2)आकार:- 

               कला के तत्व में दूसरा महत्वपूर्ण स्थान है आकार । गृहसज्जा में इसका अमूल्य योगदान है। सुन्दर आकार की वस्तुओं सभी को अपनी और आकर्षित करती है, लुभाती हैं और चित्त को प्रसन्न करती है।

आकार के प्रमुख स्वरुप निम्नानुसार हैं - 

(i) वर्गाकार - 

         दो खड़ी और आड़ी रेखा के संयोजन से वर्ग बनता है। दोनो ही खड़ी और आड़ी रेखा समान माप की होती है।

(ii) आयताकार -

        दो खड़ी और आड़ी रेखा के मिलने से आयत बनता है। परन्तु ये असमान माप की होती है।

(iii) त्रिभुजकार - 

       एक आड़ी तथा दो तिरछी रेखा के मिलने से त्रिभुज का निर्माण होता है।

(iv) पंचभूजाकार - 

         पांच रेखाओं के संयोजन से ये बनता है।

(v)शतभुजाकर - 

          दो खड़ी और चार तिरछी रेखाओं के संयोजन के मिलने से जो आकृति बनती है उसे शतभुजाकार कहते हैं।

(vi) वृताकार -

          इसका निर्माण दो वक्र रेखा के आपस में मिलने से होता है।

 

(3) बनावट:- 

               कला के तत्वों में बनावट का भी अमूल्य योगदान है। सज्जा में आकर्षण उत्पन्न करने के लिए इसका होना आवश्यक है। विभिन्न वस्तुओं के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री अथवा निर्माण विधि का उसके धरातल पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।किसी वस्तु की रचना एवं चमक से भी उसके खुरदुरेपन अथवा कोमलता का पता लगाया जा सकता है।बनावट का उपयोग सज्जा में पर्दे, दरी, कालीन,फर्नीचर, बेड कवर तथा अन्य सजावटी सामग्री पर किया जाता है।

 

(4) रंग :- 

         रंग कला के तत्वों का सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। गृह सज्जा में रंग का अपना महत्वपूर्ण स्थान है जिसे कदापि नकारा नहीं जा सकता। रंगों का मानव जीवन से गहरा संबंध है। रंगीन वस्तुएं मन को प्रसन्नता, उत्साह और आकर्षक से भर देती है। रंगो के कारण ही प्राकृतिक वस्तु सुंदर, मनमोहक,आकर्षक और अद्भुत छटा बिखरने वाली लगती है।

रंगों का व्यक्ति के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कुछ रंग चित को हर्षित एवं उल्लासित करते हैं तो कुछ रंग अवसाद एवं निराशा उत्पन्न करता है। रंगों से स्थान एवं दूरी का भी भ्रम उत्पन्न किया जा सकता है।


 

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CHAPTER - 21
  कला के सिद्धांत 


 

डिज़ाइन तत्वों (रेखा, आकार, रंग, बनावट और स्थान) के कुछ संयोजन दूसरों की तुलना में बेहतर काम करते हैं। यहां कुछ दिशानिर्देश दिए गए हैं जो आपको यह समझने में मदद करेंगे कि क्यों कुछ संयोजन काम करते हैं और अन्य भी काम नहीं करते हैं। ये दिशानिर्देश - लय, अनुपात, जोर, संतुलन और एकता - डिजाइन के सिद्धांत हैं।

 

लय (Rhythum) :- 

     आपने संगीत की लय को महसूस किया है. लय भी उन चीज़ों का एक हिस्सा है जिन्हें आप देखते हैं। यह आंख को डिज़ाइन के एक भाग से दूसरे भाग में जाने की अनुमति देता है।

 

लय इनके द्वारा बनाई जा सकती है:

• डिज़ाइन करते समय किसी रंग, आकार, बनावट, रेखा या स्थान को दोहराना।

• वस्तुओं, आकृतियों या रेखाओं के आकार को क्रम में (छोटे से बड़े) बदलना।

• टिंट से शेड्स (हल्के नीले से गहरे नीले) तक रंगों की प्रगति का उपयोग करना।

• एक रंग से पड़ोसी रंग में स्थानांतरण (पीला से पीला-नारंगी से नारंगी से लाल-नारंगी से लाल)।

 

अनुपात ( proportion) :-

        अनुपात का तात्पर्य डिज़ाइन के एक भाग और दूसरे भाग या संपूर्ण डिज़ाइन के बीच संबंध से है। यह आकार, आकार और मात्रा की तुलना है। उदाहरण के लिए, दीवार पर लटकी हुई वस्तु के ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज माप के बीच का संबंध सुखद हो सकता है क्योंकि असमान लंबाई एक दिलचस्प विरोधाभास उत्पन्न करती है।

 

 जोर (Emphasis):- 

        प्रत्येक डिज़ाइन को एक उच्चारण की आवश्यकता होती है - रुचि का एक बिंदु। ज़ोर वह गुणवत्ता है जो किसी डिज़ाइन के एक निश्चित भाग पर आपका ध्यान सबसे पहले आकर्षित करती है। जोर देने के कई तरीके हैं:

• एक विपरीत रंग का प्रयोग करें।

• एक अलग या असामान्य लाइन का उपयोग करें।

• किसी आकृति को बहुत बड़ा या बहुत छोटा बनाएं. • किसी भिन्न आकार का उपयोग करें.

• सादे पृष्ठभूमि स्थान का उपयोग करें।

 

संतुलन(balance):-

     संतुलन से स्थिरता का एहसास होता है। संतुलन तीन प्रकार के होते हैं.

1)सममित, या औपचारिक संतुलन :-

      सबसे सरल प्रकार है। एक वस्तु जो सममित रूप से संतुलित होती है वह दोनों तरफ समान होती है। हमारा शरीर औपचारिक संतुलन का एक उदाहरण है। यदि आप अपने सिर से पैर की उंगलियों तक अपने शरीर को आधे में विभाजित करने वाली एक काल्पनिक रेखा खींचते हैं, तो आप दोनों तरफ लगभग समान होंगे।

जिन डिज़ाइनों में  रेडियल संतुलन होता है  उनमें एक केंद्र बिंदु होता है। टायर, पिज़्ज़ा और डेज़ी फूल सभी रेडियल संतुलन वाले डिज़ाइन के उदाहरण हैं। जब आप बहुरूपदर्शक से देखते हैं, तो जो कुछ भी आप देखते हैं उसमें रेडियल संतुलन होता है।

 

2)असममित संतुलन :-  

        दोनों तरफ समान वजन की भावना पैदा करता है, भले ही दोनों तरफ एक जैसे न दिखें। असममित डिज़ाइनों को अनौपचारिक डिज़ाइन भी कहा जाता है क्योंकि वे गति और सहजता का सुझाव देते हैं। असममित संतुलन प्राप्त करना सबसे कठिन प्रकार का संतुलन है और संतुलन प्राप्त होने तक अक्सर प्रयोग करना पड़ता है या तत्वों को इधर-उधर घुमाना पड़ता है।

 

एकता (unity or harmony):- 

        जब चीजें एक साथ सही लगती हैं, तो आपने एकता या सद्भाव पैदा कर लिया है। एक दूसरे को दोहराने वाली रेखाएँ और आकृतियाँ एकता दर्शाती हैं (घुमावदार आकृतियों वाली घुमावदार रेखाएँ)। जिन रंगों का रंग समान होता है वे सामंजस्यपूर्ण होते हैं। समान अनुभूति वाले बनावट एकता को जोड़ते हैं। लेकिन कभी-कभी बहुत अधिक एकरूपता उबाऊ हो सकती है। साथ ही, बहुत अधिक विविधता एकता को नष्ट कर देती है।

 

       

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